11. “बस
यूँ ही...”
अफ़लातून
उस दिन बेताल और विक्रम
शहर में ही टहल रहे थे. अचानक एक घर के सामने भीड़ देखकर विक्रम ने पूछा:
“यहाँ क्या हुआ है,
बेताल? कोई अनहोनी?”
“नहीं,
विक्रम, भीड़ तो किसी भी कारण से जमा हो जाती
है. इस घर में एक ख़ुशी की बात हुई है!”
“फिर, ये पुलिस, कैमेरे वाले...?”
“चलो,
राजाजी, तुम्हें पूरी बात बताता हूँ, बस, मुझे बीच में टोकना नहीं और कोई सवाल भी नहीं
पूछना...”
विक्रम ने हाँ कर दी.
बेताल बताने लगा:
“ये घर सव्यसाची का है.
सव्यसाची बड़ा आदमी है – एक बड़ी कम्पनी का मैनेजिंग डाइरेक्टर. ‘मल्टीनेशनल कम्पनी का डाइरेक्टर होना कोई मज़ाक की बात नहीं होती. अनेक
योग्यताओं के साथ ही बिना थके, बिना रुके कार्य करने की
क्षमता होना अत्यंत आवश्यक है. रुके तो, सुस्ताए तो, न जाने कब मार्केट के उस अजस्त्र चक्र से बाहर फेंक दिए जाओगे. तनख़्वाह काफ़ी
मोटी मिलती है. जीवन की छोटी-छोटी ख़ुशियों से, परिवार के
सदस्यों से न जाने कब महरूम हो गए, पता ही नहीं चला. न जाने
बच्चे कब बड़े हो गए, क्या-क्या डिग्रियाँ उन्होंने प्राप्त
कर लीं, मैंने जाना ही नहीं. घर वापस आओ तो सभी अपने कामों
में व्यस्त, या फिर सोए हुए मिलते. मुझे सुकून के कुछ पल
मिलें, इसलिए कोई भी अपनी रोज़मर्रा की समस्याएँ मेरे पास
नहीं लाता, मगर मैं तो, इसी कारण,
अपनों से बेगाना हो गया. कभी-कभी तो जी करता है, कि यह सब छोड़कर चले जाओ, मगर क्या यह संभव है?
नहीं, मुझे तो प्रतियोगिता के भय से घूमते ही
रहना है, तेज़...और तेज़...’
देर रात को कार में घर
लौटते हुए सव्यसाची यही सब सोच रहा था. गनीमत थी कि कार ड्राइवर चला रहा था,
वर्ना, अपने ही विचारों में डूबे-डूबे वह तो
एक्सीडेंट ही कर बैठता.
याद आया उसे कॉलेज का
ज़माना. सभी सहपाठी अधिक से अधिक धन अर्जित करने वाली नौकरी पाने की होड़ में
प्रसिद्ध, सुप्रसिद्ध, अतिप्रसिद्ध
मैनेजमेंट इन्स्टीट्यूट में दाखिला पाने के लिए तरस रहे थे. सव्यसाची भी जी तोड़
मेहनत कर रहा था. परिवार के सदस्यों को, ख़ासकर माता-पिता को
काफ़ी उम्मीदें थीं उससे. उच्च-मध्यम वर्ग वाले परिवार का यह बेटा धनाढ्य वर्ग में
शामिल होने के सपने देख रहा था.
उसके सपने पूरे भी हुए.
कलकत्ता के मैनेजमेंट संस्थान में उसे प्रवेश मिल गया तो सभी ख़ुशी से फूले न समाए.
यार-दोस्तों के अभिवादनों में छिपी ईर्ष्या के पुट को भी वह शीघ्र ही भूल गया.
देखते-देखते, दो वर्ष बीतते-बीतते एक अत्यंत
प्रसिद्ध मल्टीनेशनल कम्पनी में सव्यसाची को नौकरी भी मिल गई. ज़ाहिर था, शादी भी शीघ्र ही हो गई, सव्यसाची नौकरी में
पदोन्नति प्राप्त करता रहा और पत्नी, शची, उसके हर मूड को संभालती, उसका साथ देती रही. परिवार
की कोई भी समस्या क्यों न हो, चाहे बच्चों का एडमिशन हो,
या कोई बीमार हो, या कोई पार्टी हो, या घर में ही कोई उत्सव हो, सभी कुछ तो संभाल लेती
थी शची! सव्यसाची बस नौकरी करता, तरक्की पाता, कम्पनी की प्रतिष्ठा को संभालते हुए आगे बढ़ता रहता.
मगर उम्र तो बढ़ती है. पचास
वर्ष की आयु प्राप्त करते-करते सव्यसाची को बड़ी तीव्रता से महसूस होने लगा,
कि वह कुछ उकता गया है, उसी एकसार वातावरण से
काफ़ी थक गया है, मगर मार्केट की जानलेवा होड़ में फुर्सत के
चंद पल भी निकाल पाना असंभव था. शची सब कुछ देखती, मगर लाचार
थी, उसे पति की प्रतिष्ठा, उसकी थकावट,
मार्केट में दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही होड़ से अब कुछ भय-सा लगने लगा
था. पति के पीछे साये की तरह रहना चाहती वह, मगर ऐसा करना
संभव तो नहीं था.
प्रतिदिन की भाँति
सव्यसाची सुबह-सुबह सैर को निकला. यही एक आदत थी, जो उसने
अब तक छोड़ी नहीं थी. बल्कि यूँ कहिए कि शरीर की मशीन को चालू हालत में रखने के लिए
यह प्रातःकालीन सैर बड़ी आवश्यक थी. सुबह पाँच बजे निकल जाता सव्यसाची और करीब
घण्टे भर बाद वापस आकर अपनी दिनचर्या में लीन हो जाता.
मगर उस दिन साढ़े छह बज गए,
सात, आठ, नौ भी बज गए,
मगर सव्यसाची न लौटा. शची उसके टहलने के रास्ते से परिचित थी,
स्वयँ कार निकलवाकर देख आई...नहीं, रास्ते में
कहीं कोई दुर्घटना नहीं हुई थी. वापस आकर सभी परिचितों को फ़ोन किए, रिश्तेदारों से पूछा...कोई पता नहीं.
हार कर पुलिस में शिकायत
दर्ज करनी ही पड़ी.
पुलिस में कम्प्लेंट
लिखवाने की ही देर थी, कि सभी अख़बारों में, रेडिओ पर, दूरदर्शन पर सव्यसाची के गायब होने की ख़बर
आ गई. पुलिस की खोज शुरू हो गई. उसके दोस्तों, दुश्मनों,
कम्पनी के सहयोगी अफ़सरों से पूछताछ की गई. कम्पनी में सव्यसाची
लोकप्रिय ही था, किसी से उसकी दुश्मनी भी नहीं थी. कोई अन्य
कम्पनी इस कम्पनी को हड़पने की मंशा भी नहीं रखती थी. फिर...?
अस्पताल गए,
हो सकता है, अति थकान के कारण सव्यसाची कहीं
गिर तो नहीं गया? मगर कोई लाभ न हुआ. शची का रो-रोकर बुरा
हाल था. निकटतम रिश्तेदार भी आ गए थे, बच्चे अलग परेशान थे,
बड़ा बेटा लगातार टेलिफोन के पास बैठा रहा और छोटा बार-बार पुलिस थाने
जाकर पूछ आता, कि उसके पापा की कोई ख़बर तो नहीं आई.
अब एक ही अनुमान लगया जा
रहा था, कि हो न हो, सव्यसाची
का अपहरण ही किया गया होगा. फिर...यदि वे धन की मांग करें तो, यदि कम्पनी के कोई भेद मालूम करना चाहें तो...
मगर ‘अपहरण कर्ताओं’ की ओर से कोई फोन भी नहीं आया.
एक दिन बीत गया. घर में किसी
ने भी खाना नहीं खाया. दूसरा दिन भी बीता. आज समाचार पत्रों में और टी.वी. चैनल्स पर
बस इतना कहा गया, कि सव्यसाची की अब तक कोई ख़बर नहीं
मिली है.
तीसरा दिन...लगता था कि सभी
प्रचार-प्रसार के माध्यम सव्यसाची को भूल गए हैं. फिर तो दिन बीतते रहे...सिर्फ परिवार
वालों को छोड़कर कोई भी उसके लिए परेशान नहीं था.
और फिर...एक बार फिर अख़बार
में सव्यसाची की फोटो छपी, वह लौट आया था,
सकुशल!
परिचितों,
सहयोगियों का तांता लग गया उसके घर. पुलिस वाले, सी.आई.डी. वाले सवाल पूछ-पूछकर अलग हैरान किए दे रहे
थे. थक गया सव्यसाची दुहरतए-दुहराते, कि उसे नहीं मालूम,
कि उसे कौन ले गया था, कहाँ और क्यों ले गया था.
उस दिन सुबह,
जब वह सैर को निकला था, तो अचानक दो आदमियों ने
उसे दबोच कर कार में डाल दिया और किसी अज्ञात स्थल की ओर ले चले. सव्यसाची को पीछे
की सीट पर लिटा दिया गया, वह उठ नहीं पाए इसलिए वे ही दोनों,
जिन्होंने उसे दबोच लिया था, उस पर बैठ गए. लिहाज़ा
सव्यसाची देख ही नहीं पाया कि उसे कौन सी जगह ले जाया जा रहा है. गंतव्य तक पहुँचने
पर उससे एक बड़ी रकम की माँग की गई, यह आदेश दिया गया कि वह अपने
घर वालों को फ़ोन करके रकम पहुँचाने का बंदोबस्त करने के लिए कहे. सव्यसाची बोला कि
यदि वह अपना घर और घर की एक-एक चीज़ भी बेच दे तब भी इतनी रकम प्राप्त नहीं कर सकता.
अपहरण कर्ताओं ने यह सोचकर,
कि सव्यसाची की सांपत्तिक स्थिति का उन्होंने गलत अंदाज़ लगा लिया था,
उसे आज़ाद करने का फ़ैसला कर लिया. उसे एक ट्रेन में बिठा दिया गया,
जब कुछ देर बाद सव्यसाची कुछ संभला तो उसने खिड़की से झाँककर देखा और
यह अनुमान लगाया कि वह कलकत्ता से अधिक दूर नहीं है. हावड़ा स्टेशन आते ही वह उतर गया
और टैक्सी से अपने घर चला आया, बिना किसी खरोंच के, बिना किसी भय के लक्षण को ओढ़े. पुलिस एवम् पत्रकारों के प्रश्नों के उत्तर
देते-देते वह इतना थक गया कि उसकी जीभ लड़खड़ाने लगी, आँखों के
सामने अंधेरा छाने लगा, वह बेहोशी के आलम में जाने लगा.
शची ने प्रार्थना की कि उसके
पति का मानसिक तनाव समाप्त होने तक उनसे कोई प्रश्न न किए जाएँ. वे थक गए हैं,
उन्हें आराम की सख़्त ज़रूरत है.
सभी चले गए. सव्यसाची ने लम्बी
तान दी, करीब दो घण्टे बाद वह उठा तो देखा कि
बच्चे अपने-अपने काम पर चले गए हैं, रसोईघर से सोंधी-सोंधी ख़ुशबू
आ रही है. वह उठा, झटपट स्नान करके किचन में आया और पीछे से आकर
पत्नी का आलिंगन करते हुए बोला: “मान गया, तुम्हें! सचमुच,
बड़ा आराम किया पूरे हफ़्ते! सारी थकान निकल गई! अब बढ़िया-सा खाना खिला
दो, आज का दिन आराम करके कल से ऑफ़िस जाऊँगा.”
पत्नी भी मुस्कुरा रही थी.
खाना खिलाते हुए बोली, “दूसरा उपाय भी तो न था. ना तो
तुम छुट्टी लेते, ना कम्पनी तुम्हें छुट्टी देती. अपहरण हो जाने
के बाद तो किसी का बस नहीं चलता न! बस, अब मुझे एक ही बात की
चिंता ह, कहीं उन्हें सच का पता न चल जाए. वे यह न पूछ बैठें,
कि क्या अपहरणकर्ताओं के पास पिस्तौल भी नहीं थी? उन्होंने तुम्हारे हाथ-पैर भी नहीं बांधे? तुम्हारे यह
कहने पर कि तुम बड़ी रकम नहीं दे सकते, वे मान गए? तुम्हें छोड़ दिया? ट्रेन में बैठा दिया...एक खरोंच तक
नहीं आई, चेहरे पर भय का कोई चिह्न तक नहीं! शायद, तुम कोई अच्छी सी कहानी गढ़ते...ख़ैर, फिक्र न करो,
मैं सब संभाल लूँगी, मैं तुम्हारे साथ ही रहूँगी...”
सव्यसाची मुस्कुराया,
बोला, “तुम्हीं ने यह तरकीब सुझाई थी, मुझे दीदी के घर, गाँव भेजने की, आराम करने के लिए...अब तुम्हीं सब संभालना...तुम्हारी बुद्धि पर मुझे पूरा
भरोसा है.”
इतना कहकर बेताल चुप हो गया.
विक्रम भी सोच में पड़ गया. बोला, “शायद शची ने ठीक
ही किया था? जब घी सीधी उँगली से न निकले, तो कुछ न कुछ करना ही पड़ता है...तुम्हारा क्या ख़याल है, बेताल?”
“शायद,
तुम ठीक कह रहे हो, विक्रम!” बेताल ने इस बार अलग
जवाब दिया.
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