Saturday, 21 July 2018

पूछे विक्रम, बोले बेताल - 02



विदेश जाने की होड़

अफ़लातून


राजा विक्रम को सोच में डूबा देखकर बेताल ने पूछ लिया, “किस चिंता में बैठे हो, राजा जी?”

“बेताल भाई, मैं देख रहा हूँ कि लोगों के चेहरों पर सदा चिंता के बादल ही होते हैं. किस बात की चिंता है भारतवासियों को?”

“एक बात हो तो कहूँ! घर की चिंता, बाहर की चिंता, अपनी नौकरी की चिंता, बेटियों के ब्याह की, बेटे की नौकरी की, उसकी शिक्षा की, उन्हें विदेश भेजने के जुगाड़ की...!”

“रुको, रुको, बेताल, यह विदेश भेजने वाली बात तुमने क्या कही?”

“विक्रम भाई, विदेशों में जाकर नौकरी करने की, ख़ूब सारा धन कमाकर वहीं बस जाने की, वहाँ की नागरिकता ग्रहण करने की होड़ पिछले चालीस-पचास वर्षों में बड़ी भयंकर हो गई है. लोग अपने बेटों या बेटियों को पहले तो विदेशों में उच्च अध्ययन के लिए भेजते हैं, फिर वे बच्चे पढ़ाई का खर्च उठाने की ख़ातिर वहीं छोटी-मोटी नौकरी कर लेते हैं और अध्ययन पूरा होने पर वहीं बस जाते हैं, शादी-ब्याह कर लेते हैं, कभी-कभार भारत आते हैं और यहाँ की मिट्टी से, धूल से, हवा से, पानी से, भोजन से दूर रहने का प्रयत्न करते हैं, जिस मिट्टी में पले-बढ़े उसे दुत्कार कर वापस लौट जाते हैं और फिर कभी वापस नहीं आते. इस तरह भारतीय परिवारों का एक अंश विदेशी बनता जा रहा है, मातृभूमि को ठुकराकर पराई गोद में चैन ढूँढ़ता है.”

“उन्हें क्या चैन मिल पाता है? मैं सोचता हूँ, कि अपने घर जैसा घर और अपने देश जैसा देश कहीं नहीं है.”

“यह तो तुम सोचते हो, विक्रम! मगर अनेक नौजवान ऐसा नहीं सोचते, यदि थोड़े-बहुत सोचते भी हैं, तो वापस लौटना उनके लिए संभव नहीं होता.”

“ऐसा क्यों, बेताल? कुछ विस्तार से कहो...”

“सुनो, मैं तुम्हें आशुतोष और विभावरी की कहानी सुनाता हूँ....

भारत के दक्षिण-पश्चिमी सागर तट पर बसा है आनन्द पट्टनम. आनन्द पट्टनम में एक मध्यमवर्गीय परिवार में जन्म हुआ आशुतोष का. पिता शासकीय अधिकारी और माता शिक्षिका थीं. साम्पत्तिक स्थिति अच्छी थी. आशुतोष एकमात्र संतान होने के साथ-साथ होशियार और अध्ययनशील भी था. उच्च शिक्षा प्राप्त करते-करते उसे अपनी सहपाठिनी विभावरी भा गई. दोनों परिवार तोल-मोल के थे, सो आशुतोष का विभावरी के साथ ब्याह हो गया. हर महत्वाकांक्षी युवक की भांति आशुतोष भी विदेश में नौकरी पाने का प्रयत्न करने लगा.”

“उसे नौकरी मिली? कहाँ?”

“मिलती क्यों नहीं? भारतीय युवक वास्तव में बड़े विद्वान और मेहनती होते हैं. विदेशी लोगों की अपेक्षा भारतीय लोग निश्चय ही अधिक कुशल होते हैं.”

“फिर तो वे बड़े-बड़े ओहदों पर नौकरी पाते होंगे.”

“कैसे पायेंगे? कुछ भी कहो, जाते तो वे याचक बनकर, सेवक बनकर ही हैं न! चाहे कितने ही विद्वान क्यों न हों, वे हमेशा कनिष्ठ स्थानोंपर ही रखे जाते हैं. यदि ऐसा न किया गया, तो धीरे-धीरे सभी स्थानों पर भारतीयों का वर्चस्व हो जाएगा, विदेशी इस दृष्टि से बड़े सतर्क रहते हैं. योग्य से योग्य विद्वान की सेवाएँ मिट्टी के मोल खरीद कर उन्हें अपमानास्पद जीवन जीने के लिए मजबूर करते हैं. ख़ैर तुम कहानी सुनो!”

“तो आशुतोष और विभावरी चले गए कुबेरपुर?”

“हाँ, अधिकांश भारतीय नौकरी एवम् धन-प्राप्ति के लिए कुबेरपुर जाना ही पसंद करते हैं. यदि वहाँ संभव न हुआ तो कंठाल साम्राज्य या अस्ताचल साम्राज्य की ओर रुख करते हैं. तो, कुबेरपुर में आशुतोष और विभावरी दोनों को काम मिल गया. काफ़ी धन कमा लेते, कुछ माता-पिता को भेजते, कुछ जमा कर लेते. धीरे-धीरे उन्होंने एक विशाल आवास भी ख़रीद लिया.”
“विशाल क्यों? रहते कितने लोग थे वहाँ?”

“बस वे दोनों ही. और वे भी, रहते कहाँ थे, सुबह उठकर दोनों अपने-अपने कार्य पर चल पड़ते, रात को थके मांदे लौटते, दिन भर के अनुभवों को सुनाते, मन में कचोट लिए कि उनसे कहीं कम कुशल व्यक्ति की पदोन्नति होती जाती है, मगर उनकी पदोन्नति काफ़ी धीरे-धीरे हो रही है. धीरे-धीरे उन्हें इस सौतेले व्यवहार की आदत पड़ गई, और वे इसे ही अपनी नियति मानकर बैठे रहे!”

“कभी माता-पिता की याद नहीं आती थी? मित्रों, संबंधियों, परिजनों को वे क्या बिल्कुल भूल गए?”
“कौन किसको याद रखता है,राजाजी! आँखों से ओझल होने पर दिल से भी धीरे-धीरे निकलना ही पड़ता है.”

“और माता-पिता कैसे रहे इतने वर्षों तक अपनी संतान के बगैर?”

“माता-पिता को पहले तो बहुत अच्छा लगा कि बेटा विदेश में है, खूब धन भेज रहा है, उन्होंने भी ऐशो-आराम के कई सारे साधन जुटा लिए. मगर एक दिन, वृद्धावस्था के निकट पहुँचते-पहुँचते, उन्हें इस सत्य को, कटु सत्य को स्वीकार करना ही पड़ा वे बेटे को हमेशा के लिए खो चुके हैं.”
“आशुतोष और विभावरी ने भी कभी वापस लौटने का प्रयत्न नहीं किया?”

“दो-एक बार किया था. वे अपने दो सुंदर बालकों के साथ स्वदेश आए थे. कुछ दिन रुकने पर ही उन्हें विश्वास हो गया कि वे यहाँ नहीं रह सकते. दोनों बालक बीमार हो गए, आशुतोष ने पाया कि जितना धन वह कुबेरपुर में कमा रहा है, उसका आठवाँ भाग भी भारत में नहीं कमा सकेगा.

उसने वहीं, कुबेरपुर में ही, बस जाना, वहीं दूसरे दर्जे की ज़िंदगी जीना बेहतर समझा. भारत में भी उसे अब कोई भारतीय तो कहता नहीं था, वह तो आप्रवासी भारतीयथा. तो इस तरह आशुतोष और विभावरी अपने माता-पिता को वृद्धावस्था में अकेला छोड़कर कुबेरपुर वापस चले गए.”

“माता-पिता का क्या हुआ?” राजा ने चिंतित होकर पूछा.

“होना क्या था! वे दोनों जैसे दशरथ के पुत्र-वियोग की तस्वीर बन गए थे. बेटा! बेटा! कहते हुए ही उन्होंने प्राण त्याग दिए. बेटे ने सोचा कि सारे संस्कार तो मित्रों, संबंधियों ने कर ही दिए होंगे, अब जाकर क्या करूँगा, अतः वह माता-पिता की मृत्यु पर भी स्वदेश नहीं आया.”

“यह तो बड़ी करुण कथा सुनाई तुमने बेताल! मगर मैं तो आशुतोष-विभावरी का भविष्य भी सुखकर नहीं देख रहा हूँ. विदेशी सभ्यता में पले उनके दोनों बेटे, अपनी विदेशी पत्नियों के साथ क्या आशुतोष-विभावरी का ध्यान रखेंगे? उनका अंत कैसे होगा? क्या वे इस संसार से समाधान के बीच, अकेलेपन और टूटन का अनुभव करते हुए ही बिदा लेंगे, जैसा उनके माता-पिता के साथ हुआ था?”

“मालूम नहीं...”

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पूछे विक्रम, बोले बेताल - 12

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