Monday, 30 July 2018

पूछे विक्रम, बोले बेताल - 04




स्वर्णलता और सिंहासन
                                                       --अफ़लातून

“बेताल”, राजा विक्रम ने कहा, “अब कुछ भारतवर्ष के बारे में भी बताओ. वहाँ कौन राज्य कर रहा है आजकल?”

“कहाँ का राज्य और कहाँ का राजा! राजे-रजवाड़ों के दिन तो कब के लद गए, अब वहाँ जनता अपना शासक चुनती है, और वह शासक पाँच वर्षों तक राज्य चलाता है.”

“तो, आजकल कौन है शासक?”

“अब तो नया शासक चुने जाने का समय आ पहुँचा है. कभी-कभी यूँ भी होता है कि पाँच वर्षों की अवधि पूरी होने से पहले ही नया शासक चुनने की नौबत आ जाती है. राजा जी, इस समय शासक पद के दावेदार कई हैं, जिनमें एक राजकुमारी भी है.”  

“राजकुमारी, किस वंश की? जल्दी से बताओ, मैं तो सभी वंशों को जानता हूँ.”

“नहीं, नहीं, यह वैसा वंश नहीं है. इस वंश में दादा से लेकर पोते तक तीन शासक रह चुके हैं. यह राजकुमारी वीरगति को प्राप्त हुए राजकुमार की रानी है.”

“आह, मैं एक झलक देख लेता!”

“इसमें कौन सी बड़ी बात है, तुम आँखें बंद करो, तुम्हें राजकुमारी स्वर्णलता के दर्शन कराए देता हूँ.”
विक्रम ने आँखें मूंद लीं, तो देखा कि रोते-बिलखते, छाती पीटते स्त्री-पुरुषों की भीड़ लगी है, कुछ पुरुष एक महिला को, जो एक ऊँचे स्थान पर खड़ी थी, खींचकर नीचे लाने की चेष्टा कर रहे थे, महिला का शरीर भीगा हुआ था. तभी एक गोरी चिट्टी, चौड़े ललाट वाली, अनावृत शीश, बिखरे केश-कलाप वाली महिला एक द्वार से बाहर निकली और भीड़ से कुछ कहने लगी.

विक्रम ने आँखें खोल दीं, और बेताल से पूछा, “यह मुक्त केश वाली थी न स्वर्णलता?”

“हाँ, वही थी.”

“ये लोग रो क्यों रहे हैं? और यह स्वर्णलता भारतीय महिला जैसी भी नहीं दिखाई देती.”

“यही कारण है इस रुदन का! असल में स्वर्णलता है विदेशी. मगर पति की अथाह सम्पत्ति एवम् अनेक सम्माननीय व्यक्तियों के भेद उसके पास हैं. सोचती है, पति के पश्चात् सिंहासन उसे ही मिलना चाहिए. मगर कुछ लोगों ने कहा, कि भारतवर्ष का शासक भारत माँ का सपूत ही हो सकता है. स्वर्णलता कोपभवन में जा बैठी. ये लोग, जो रो रहे हैं, उसे मनाने आए हैं, ये भीगी हुई महिला मिट्टी का तेल छिड़ककर आत्मदाह करने की धमकी दे रही है, कहती है, स्वर्णलता कोपभवन से निकलकर अपना जनसेवा का कार्य जारी रखे.”

“फिर लोग उसे बचाते क्यों नहीं?”

“अमाँ, विक्रम, अब इतने भोले भी न बनो! देखते नहीं, इन्हें तस्वीर उतारने वालों का इंतज़ार है. ये तो सब नाटक कर रहे हैं, कि तेल छिड़का जाएगा, नीचे खड़े लोग चीखेंगे...चिल्लाएँगे, उसे नीचे खीचेंगे...इतनी देर में तस्वीर खिंच जाएगी. या यूँ कहो, कि तस्वीर खिंचने तक यह दृश्य जारी रहेगा.”

“यह तुम कैसे कह सकते हो, बेताल?”

“दिखाओ तो मुझे भीड़ में कोई ऐसा हाथ, जिसने दियासलाई थामी हो, या मशाल पकड़ रखी हो! बड़े आये आत्मदाह करने वाले! इन्हें तो इस नाटक के लिए धन दिया गया है!”

“मैं विश्वास नहीं कर सकता! देखो तो, कैसे रो रहे हैं बेचारे!”

“राजा जी, तुम भी हद करते हो! जानते हो, जब परिवार में कोई मृत्यु हो जाती है, तो कुछ लोग रोने-पीटने के लिए महिलाओं को धन देकर बुलाते हैं. ये महिलाएँ खूब रोती हैं, बाल खींचकर, छाती पीटकर! इन्हें कहते हैं – रुदाली’. बस, यहाँ भी रुदालियाँ ही आई हैं.”

“तुम्हीं तो कह रहे हो, कि रुदाली स्त्री होती है. क्या पुरुष-रुदाली भी होने लगे हैं आजकल?”

“मालूम नहीं...”

“अच्छा, यह तो बताओ, कि स्वर्णलता ने यह जानते हुए भी कि वह विदेशी है, शासक बनने का निश्चय क्यों किया है?”

“यही तो बात है, विक्रम! स्वर्णलता कहती है कि वह भारतीय है.”

“सो कैसे?”

“कहती है, कि वह यहाँ ब्याह कर आई, यहीं उसकी संतानों ने जन्म लिया, यहीं उसके पति वीरगति को प्राप्त हुए, उसने भारत की नागरीकता ग्रहण कर ली है और इसलिए भारतवर्ष ही उसकी मातृभूमि है. अब कहो, क्या कहते हो?”

“कैसी बात करते हो बेताल? मातृभूमि क्या एक से ज़्यादा हो सकती है? क्या अब भारतवर्ष को अपनी मातृभूमि बनाकर उसने अपनी असली मातृभूमि को छोड़ दिया है? क्या कोई अपनी माँ को छोड़कर किसी अन्य स्त्री को माँ कह सकता है?

अव्वल तो अपनी माँ को कोई त्याग ही नहीं सकता, जननी और जन्मभूमि तो स्वर्ग से भी श्रेष्ठ हैं. और यदि कोई अपनी मातृभूमि को त्याग दे, वह भी केवल इसलिए कि उसे पराए देश पर शासन करना है, तो किसी बड़े लालच के लोभ में वह अपनी मानी हुई मातृभूमि को भी न त्याग देगा? इस बात को क्या कोई समझ नहीं पा रहा है?”

“सभी समझ रहे हैं...”

“फिर कोई कुछ करता क्यों नहीं?”

“मालूम नहीं...”

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पूछे विक्रम, बोले बेताल - 12

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