कवि कठोर
अफ़लातून
बेताल
बड़ी देर से विक्रम का इंतज़ार कर रहा था. आज न जाने क्यों विक्रम को बड़ी देर हो गई
थी. बेताल ने दिव्य दृष्टि से देखकर जान लिया कि सब कुछ ठीक-ठाक ही था. केवल कुछ
उत्तेजित जान पड़ता था विक्रम.
ऐसा
ही हुआ. गुस्से से भरा,
हाँफ़ता हुआ विक्रम आया
और बिना कुछ बोले धम् से बैठ गया. कुछ पल उसकी ओर देखकर बेताल ने मुस्कुराते हुए
पूछ ही लिया,
“किस बात का बुरा मान गए, राजा जी?”
विक्रम
ने कोई जवाब नहीं दिया,
वह अभी भी गुस्से से उफ़न
ही रहा था.
बेताल
ही आगे बोला,
“तो, तुम्हें पुलिस का जनता की भीड़ पर लाठियाँ और गोलियाँ
बरसाना अच्छा नहीं लगा?
प्रजा से सदा प्यार करते
रहने से तुम जनता को कष्ट में देखना पसन्द नहीं करते. मगर, विक्रम,
तुम्हारा ज़माना और था, आज का ज़माना बहुत बदल चुका है. तब ख़ुशहाली थी, जुर्म काफ़ी कम होते थे, अतः
संतरियों की ज़रूरत ही नहीं पड़ती थी. आज जुर्म इतने बढ़ गए हैं, दुर्घटनाएँ, प्राकृतिक
एवम् मानव निर्मित आपदाएँ मानो कतार बांधे खड़ी हैं वसुंधरा पर आक्रमण करने के लिए, जनसंख्या इतनी बढ़ गई है, अतः
यदि कोई दुर्घटना या आपदा आती है,
तो दुर्घटनाग्रस्त
व्यक्तियों की एवम् अन्य अप्रभावित जनता की रक्षा के लिए पुलिस एवम् अन्य सुरक्षा
कर्मियों को वहाँ जाना ही पड़ता है. भीड़ बेकाबू होकर जानमाल का नुक्सान न करे इसलिए
उसे नियन्त्रित करना ही पड़ता है,
इस प्रक्रिया में पुलिस
को कभी-कभी कठोर भी होना पड़ता है. तुम्हें क्यों इतना गुस्सा आ रहा है?”
“यह
तो मेरी समझ में आ रहा है,
कि जनता को नियन्त्रित
करने के लिए दण्ड का प्रयोग भी करना पड़ता है, मगर
वाणी तो मधुर रखी जा सकती है.”
“खुल
कर कहो हुआ क्या है?”
बेताल ने विक्रम को
कुरेदते हुए पूछा.
“होना
क्या था! एक जगह भीड़ पर बेंत बरसाते कुछ खाकी वर्दीधारियों को देखकर मैं
उत्सुकतावश रुक गया. निकट खड़े एक सिपाही से पूछा, “क्यों
बेंत बरसाए जा रहे हो,
दारोगा जी?”, तो उसने गरजते हुए कहा, ‘भाग जा
यहाँ से, नहीं तो टाँगें तोड़ दूँगा.’ क्या
वह कुछ नम्रता से बात नहीं कर सकता था?”
“विक्रम, विक्रम,
अगर पुलिस नम्र हो जाए
तो उससे कौन डरेगा?
प्यार से समझाने का
ज़माना तो अब रहा नहीं. पुलिस को अपनी छबि बनाए रखने के लिए चाहे, अनचाहे कटुता का, कठोरता
का मुखौटा पहनना ही पड़ता है.”
“अच्छा
बेताल, यह बताओ,
कि हरदम इसी कठोरता के
चलते, वे मीठी बात कहना-सुनना भूल ही गए होंगे. जनता में
उनकी छबि भी ठीक नहीं होगी.”
“हाँ, ठीक कहते हो. पुलिस का नाम लेने से कोई अच्छी व्यक्तिरेखा
नज़रों के सामने नहीं आती. पुलिस का कर्मचारी, चाहे
वह मामूली सिपाही हो या बड़ा अफ़सर,
आम तौर से जनता द्वारा
पसंद नहीं किया जाता. मगर राजा जी,
उन्हें दोष क्यों देते
हो? जिन परिस्थितियों में, जितनी
लम्बी समयावधि के लिए उन्हें काम करना पड़ता है, उनमें
तो कोई भी अपना आपा खो देगा. मगर इन हालात से दूर उन्हें देखो तो वे भी अन्य लोगों
की तरह भावुक,
सहृदय, सभ्य,
नम्र ही प्रतीत होंगे.
कभी-कभी तो ऐसा भी होता है,
कि यदि कोई उनसे प्यार
से बातें कर लें,
तो वे मक्खन से भी
ज़्यादा मुलायम नज़र आते हैं. उनकी कठोरता होती है सिर्फ अपराधियों के लिए. हाँ, ये बात और है कि वे अक्सर सामने वाले आदमी को पहली नज़र
में अपराधी ही समझ बैठते हैं,
पहली-पहली बात कड़कती
आवाज़ में ही कर बैठते हैं. जब उन्हें विश्वास हो जाता है, कि उनसे बात करने वाला व्यक्ति निरापद है, तब कहीं जाकर वे निःशंक होकर वार्तालाप कर पाते हैं.”
“बेताल, जो कुछ मैंने आज देखा, उसे
देखकर तो मैं यह मानने को तैयार ही नहीं हूँ कि पुलिस वालों में कोई सभ्य, सुसंस्कृत व्यक्ति होगा.”
“रुको, रुको,
राजाजी! उतावलेपन में
सभी को एक जैसा न समझ लेना. सुनो,
आज तुम्हें एक बहुत बड़े
पुलिस अफ़सर के बारे में बताता हूँ.”
“बहुत
बड़े, मतलब,
बहुत कठोर!” बोल पड़ा
राजा विक्रम.
“बिल्कुल
गलत! सुनो, ये अफ़सर महोदय, जिनका
नाम है सुविचारी जी,
बहुत पढ़े-लिखे, बड़े ही कुशल, सज्जन
पुरुष हैं. अभी कुछ ही दिन पहले उन्हें एक बड़ा सम्मान भी प्राप्त हुआ है. एक दिन
उन्होंने अख़बार में पढ़ा कि किसी महान लेखक के बारे में एक पुस्तक प्रकाशित हुई है.
सुविचारी जी को वह पुस्तक चाहिए थी,
उन्होंने तुरंत प्रकाशक
से सम्पर्क किया. उन्हें बताया गया,
कि पुस्तक सीधे सम्पादक
से प्राप्त की जा सकती है. सुविचारी जी ने तुरन्त एक सिपहिए को दौड़ाया, पुस्तक उन्हें दे दी गई. अब, सम्पादक असमंजस में! भला पुलिस का इतना बड़ा अफ़सर और
साहित्य में इतनी रुचि! ख़ैर,
एक भले इन्सान होने के
नाते उन्होंने पुस्तक तो भेज दी,
मगर उनकी उत्सुकता ख़ामोश
रहने को तैयार ही न थी. सोचा,
चलो, दूरभाष से ही कुछ अन्दाज़ लगाया जाए कि कैसे हैं
सुविचारी जी!
सुविचारी
जी से सम्पर्क बनाना टेढ़ी खीर थी. चारों ओर कर्मचारी दौड़ते रहते, व्यक्तिगत रूप से उन तक पहुँचना तो असंभव था, मगर सम्पादक ने भी उनसे बात करने की ठान ही ली थी.
लगातार तीन दिन तक प्रयत्न करने के बाद उनसे बात हो पाई. यह कहने पर, कि “मैं सुविचारी जी से बात करना चाहता हूँ,” एक कड़कती आवाज़ ने कहा, “सुविचारी
बोल रहा हूँ,
कहिए.”
सम्पादक
ने अपना परिचय देकर कहा कि वह सिर्फ यह जानना चाहते हैं कि पुस्तक सुविचारी जी तक
पहुँची या नहीं. इतना कहने भर की देर थी, कि
सुविचारी जी अपनी मीठी,
सौम्य, सहज,
सरस भाषा में बात करने
लगे. वर्दी का वलय कहीं खो गया. सम्पादक को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ, वे पूछ ही बैठे, “पुलिस की
वर्दी में ऐसा कवि-हृदय?
सुविचारी जी, आप से बात करके मैं गद्गद् हो गया. बताइए, आपको इस लेखक में इतनी रुचि कैसे उत्पन्न हुई, और क्या आप पुस्तक वास्तव में पढ़ पाएँगे?”
“प्रशासनिक
सेवा अलग बात है,
और व्यक्तिगत रुचि उससे एकदम
भिन्न है,” विक्रम ने बीच ही में टोकते हुए कहा, “कर्तव्य की मांग है – कठोरता, वहाँ सौम्यता से काम नहीं चलता, मगर हृदय के, आत्मा के
जन्मजात गुण तो शाश्वत होते हैं.”
“जैसे
नारियल का फल होता है,”
बेताल बोला, “वह जानता है, कि पेड़
से टूटकर उसे कठोर भूमि पर गिरना है. अगर उसका आवरण नरम होगा तो पृथ्वी पर गिरकर चूर-चूर
हो जाएगा. अतः कड़ा आवरण धारण करना ही पड़ता है. मगर जब इस आवरण को हटा दो तो अंदर नरम, मीठा फल पाओगे.”
“ठीक
कहते हो, बेताल,”
राजा विक्रम ने सहमत होते
हुए कहा, “मगर मुझे यह चिंता सता रही है, कि इस प्रशासनिक सेवा में रहते हुए कितने काल तक सुविचारी
जी अपने मृदु स्वभाव को सहेजे रहेंगे.”
“मालूम
नहीं…” बेताल का उत्तर था.
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