Saturday, 22 September 2018

पूछे विक्रम, बोले बेताल - 10




10. मानव प्रेम
अफ़लातून


बाहर ज़ोरदार बारिश हो रही थी. विक्रम ने कहा, “बेताल, आज यहीं बैठकर बारिश का मज़ा लेते हैं, एक अलाव जला लेंगे, कुछ मूंगफलियाँ खाएँगे और तुम कुछ सुनाना.”

बेताल भी सहमत हो गया.दोनों अलाव के निकट बैठे और हल्की-हल्की गरमाहट से जब उनके चित्त प्रसन्न हो गए तो विक्रम ने कहा, “ बेताल, यह अग्निभी बड़ी रहस्यमय है, अभी, जब अलाव के रूप में है, तो बड़ी सुखद प्रतीत हो रही है, मगर यदि विराट रूप धारण कर ले तो विनाश का कारण बन जाए.”

“ठीक कहते हो, राजा विक्रम! अग्नि या आग या फिर अगन ही कह लो इसे, यदि घर के चूल्हे में ही सीमित रहे तो घर के सदस्यों के लिए भोजन देती है, मगर इसका चूल्हे से बाहर आना अनर्थ ढा देता है. फिर घर में आग लग जाती है.घर में आग कोई भी लगा सकता है: पड़ोसी, शत्रु या मित्र के रूप में अशुभचिंतक, या बहू, या सौतेली संतान. यदि कभी अनहोनी हो जाए तो घर के चिरागसे भी आग लग जाती है.

बेताल ने आगे कहा, “विक्रम. आजकल कई शब्दों के साथ अग्निया आगया अगनका प्रयोग किया जाता है, जैसे : बदले की आग, कामाग्नि, प्रेम-अगन, क्षुधाग्नि...”

“बस, बस,” विक्रम ने कहा, “मुझे ये सभी शब्द अच्छे नहीं लग रहे हैं.”

“तुम्हें अच्छे लगें या न लगें, राजाजी, मगर जीवन की व्याख्या सिर्फ शब्दों के माध्यम से ही की जाती है. सुनो, तुम्हें एक कहानी सुनाता हूँ. कहानी पुरानी है, सभी की जानी-पहचानी है:

“एक बार एक शब्दकोष में एक नन्हा-सा कीड़ा घुस गया. इस शब्द जाल में फँसकर वह घबरा गया, लोटने लगा, बाहर निकलने की कोशिश करने लगा, मगर कोई राहत न मिली. पृष्ठ-दर-पृष्ठ रेंगता रहा, कोई भी शब्द उसे बाँध न पाया. थका-हारा कीड़ा हाथ जोड़कर ईश्वर की प्रार्थना करने लगा, “हे सर्वशक्तिमान, यदि इस विराट वस्तु से मुझे मुक्ति नहीं दिलाना चाहते, तो यहीं कोई ठोर-ठिकाना बना दो मेरे लिए, मैं कहीं तो रुकूं, यूँ रेंगते-रेंगते, बिना अन्न-जल के मेरा होगा क्या!”

ईश्वर को उस पर दया आ गई और उन्होंने उसे बुद्धि प्रदान कर दी. अब वह शब्दों के अर्थ महसूस करने लगा, उन शब्दों में, जिन पर वह रेंगता, यदि कोई शब्द पसंद आ जाता तो वहीं कुछ देर ठहरता, सोचता और आगे बढ़ जाता. एक दिन वह पहुँचा बचपनशब्द पर. यह शब्द उसे बहुत भाया, उसने वहीं डेरा डालने का निश्चय कर लिया. अब कीड़ा बचपनशब्द वाली चौखट में रहने लगा. कभी-कभार वहाँ से घूमने निकलता और मिठाई, चॉकलेट, दूध, बाग, खेल, स्नेह, हँसना, खिलखिलाना, मुस्कुराना, पैर पसारना, ज़िद करना, सो जाना आदि शब्दों पर चला जाता और उनकी सैर करके वापस बचपनवाले ख़ाने पर लौट आता. चिंता, भय, ईर्ष्या-द्वेष आदि शब्दों के निकट भी वह न फटकता.

मगर एक दिन उसने सोचा, कि इस विराट वस्तु में इन शब्दों के अलावा भी तो कुछ और शब्द होंगे, क्यों न घूमकर देखूँ! वह पहुँचा पाठशालाशब्द पर और इसी शब्द पर अधिकांश समय बिताने लगा. अब पुस्तक, पाठ, परीक्षा, अध्ययन यही शब्द उसे भले लगते. पाठशालाशब्द को जब उसने भली-भाँति समझ लिया, तो वह चला विश्वविद्यालयशब्द की ओर. अब उसे बचपनशब्द वाला अपना चौख़ाना छोटा प्रतीत होने लगा, सो उसने यौवनशब्द पर घर बना लिया. यह जगह उसे उत्साह और शक्ति से भरपूर प्रतीत हुई. यहीं रहते-रहते प्रेमशब्द से उसका परिचय हुआ. मगर इस शब्द पर वह ऐसा रुका, कि उसके शब्दों की दिशा ही बदल गई. अब वह पुस्तक, वाचनालय, अध्ययन आदि शब्दों के चक्कर लगाना एकदम भूल गया.भूख, प्यास, खाना, सोना शब्दों पर तो उसका ध्यान ही नहीं जाता. वह खोया रहता चांद, सितारा, बादल, सागर में. नींद शब्द के पास तक न फटकता.

“फिर क्या हुआ?” विक्रम की उत्सुकता बोल ही पड़ी.

“वही हुआ, जो भूखे प्यासे पड़े रहने से होता है. वह नन्हा-सा जीव मृत्यु नामक शब्द के पास गया और वहीं निश्चल पड़ा रहा. उसमें इतनी भी शक्ति न बची कि वहाँ से सरक पाता. वह वहीं पड़ा रहा. एक दिन उस किताब की सफ़ाई करने वाले ने उसे बाहर निकाल कर फेंक दिया.”

“यह तो बहुत बुरा हुआ. मैंने तो सुना था कि प्रेमशब्द में बड़ी शक्ति होती है. उस बेचारे का तो प्रेम ने ही बेड़ा गर्क कर दिया. अब अगर प्रेमशब्द की यही परिणति है, तो क्या फिर भी तुम कहोगे कि जीवन शब्दों का खेल है?”

“हाँ,” बेताल ने जवाब दिया. “देखो, राजाजी जीवन को कभी-न-कभी तो समाप्त होना ही है. उस समाप्त होने की प्रक्रिया में अलग-अलग व्यक्तियों को अलग-अलग शब्द-जालों से होकर गुज़रना पड़ता है. यहाँ नन्हा-सा जीव प्रेमके पश्चात् सागर, बादल, एकान्त... आदि शब्दों से गुज़रा, इसीलिए मृत्युतक शीघ्रता से पहुँच गया. यदि वह प्रेमके पश्चात् जीवन साथी, व्यवसाय आदि शब्दों पर पहुँचता तो फिर उसकी राह सुख, सम्पन्नता, दीर्घायु आदि शब्दों से होकर गुज़रती. शब्दों का चयन करना उसके वश में था. वह रास्ता भूल गया, इसीलिए उसका अंत दुखद रहा.”

“कहीं तुम ये तो नहीं कहना चाहते, कि प्रेम वरदान भी हो सकता है, और अभिशाप भी?”

“ठीक समझे, राजा जी! प्रेम तो एक उदात्त भावना है. वह मानव को शक्ति, चारित्रिक दृढ़ता, उदारता प्रदान करती है. ये ही गुण तो उसे आगे बढ़ने में सहायता प्रदान करते हैं. प्रेम को संकुचित न किया जाए, उसे मानव-प्रेम का रूप दे दिया जाए तो स्वार्थ, सत्ता-लोलुपता, बेईमानी इत्यादि शब्दों की शब्दकोष में आवश्यकता ही न रहेगी. कुछ समझे?”

“मुझे यह सब समझने में देर लगेगी, क्योंकि जिस प्रेम को मैं जानता हूँ, वह केवल मानव-प्रेम ही है. मगर मैं देख रहा हूँ, कि तुम काफ़ी दार्शनिक हो गए हो, आधुनिक जीवन को काफ़ी निकटता से देख रहे हो.ख़ैर, यह तो बताओ, कि अभी जिस मानव-प्रेम की सीमा की बात तुमने की, वहाँ तक क्या तुम्हारा आधुनिक मानव पहुँच पाएगा?”

“मालूम नहीं....” बेताल ने चिंता में डूबकर कहा.

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पूछे विक्रम, बोले बेताल - 12

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