बुद्धिजीवी
कैक्टस
अफ़लातून
“आनन्द वन में बड़ा सुहाना
उद्यान था. उद्यान के बीचोंबीच एक ताल, लुभावने
फूलों वाले पौधे, घने छायादार वृक्ष, विभिन्न
प्रकार के पंछी...पंछियों की चहचहाहट, फूलों की ख़ुशबू...आहा
हा हा...क्या रम्य वातावरण था, मानो पृथ्वी पर स्वर्ग उतर
आया हो.”
बेताल अपनी धुन में बोले
जा रहा था और विक्रम गाल पर हाथ रखे विस्मय भरी आँखों से उसे निहारे जा रहा था.
बेताल इतना मगन होकर सुना रहा था कि उसे टोकना विक्रम की जान पर आ रहा था. वह उससे
कह भी नहीं पा रहा था, कि बेताल जो कुछ भी सुना रहा
था, उसका अगला-पिछला कुछ भी तो विक्रम को मालूम नहीं था.
अचानक बेताल की नज़र उस पर पड़ी तो वह बात को फ़ौरन ताड़ कर कुछ झेंप गया और कुछ देर
ख़ामोश रहने के बाद बोला:
“माफ़ करना राजा जी,
असल में यह जगह, यह वातावरण मुझे इतना पसन्द
था उसके बारे में कुछ भी बताते समय मैं भावविभोर होकर अपने आप को भूल जाता हूँ.”
“वह तो मैं देख ही रहा हूँ,
बेताल, मगर तुम मुझे सिर्फ इतना बता दो कि यह
उद्यान था कहाँ पर और तुम ये ‘था’…’थे’…’
क्यों कह रहे हो? क्या अब वह वहाँ नहीं है?”
बेताल की आँखों में आँसू
भर आए और विक्रम उसे टुकुर-टुकुर देखता रहा. उसे तो इस बात का गुमान भी न था बेताल
तक को कोई चीज़ विचलित कर सकती है. उसने बेताल को संयमित होने के लिए कुछ समय दिया.
कुछ ही क्षणों में बेताल
आगे बतलाने लगा, “बात सौभाग्य नगर की है. और मैंने ‘था’…’थे’…इसलिए कहा कि अब वह
उद्यान वैसा नहीं रहा.”
“वैसा नहीं रहा तो फिर से
उसे सुंदर बना लेंगे. तुम निराश क्यों होते हो, बेताल?”
“इसलिए कि उसके ठीक-ठाक
होने की मुझे तो कोई उम्मीद नज़र नहीं आती.”
“वह क्यों?”
“विक्रम,
तुम्हें तो मालूम ही है कि एक मछली पूरे तालाब को गन्दा कर देती है,
और फिर उसे साफ़ करना असंभव हो जाता है.”
“तो,
यहाँ किसने ख़राब कर दिया उद्यान को?”
“आओ,
वहीं चलकर देख लेते हैं.”
विक्रम और बेताल आनन्द वन
पहुँचे. कुछ दूर से विक्रम को ऐसा आभास हुआ मानों सहस्त्रों हरे-हरे सर्प कुंडली
मारे, अस्त-व्यस्त पड़े हैं. उसका दिल बैठने लगा. कुछ
और निकट पहुँच कर देखा कि वे सर्प नहीं, बल्कि पौधे थे. ऐसे
पौधे जिनका रंग पूरी तरह हरा था, भिन्न-भिन्न आकृतियों के
होते हुए भी उन सब पर काँटे ही काँटे थे. विक्रम ने ऐसे पौधे पहले कभी नहीं देखे
थे. अतः वह बेताल की ओर देखने लगा.
बेताल ने कहा,
“राजा जी, ये कैक्टस कहलाते हैं. कम पानी में,
पथरीली ज़मीन पर, गमलों में, क्यारियों में, कहीं भी उग आते हैं. इनके काँटे बड़ी
पीड़ा देते हैं, वे कुछ ज़हरीले भी होते हैं.”
“ये इतने सारे कैक्टस यहाँ
कैसे आ गए?”
“सुनो,
इस आनन्द वन में जब प्रसन्नता का वातावरण था, कहीं
से एक कैक्टस का पौधा आ गया. उसे भी एक भले मानुस लाए थे, उस
पौधे को कहीं जगह नहीं मिल रही थी, जीने की उसमें इच्छा थी,
सो भले मानुस के दामन में उलझ गया. उन्हें भी उस पर दया आ गई और
उसके विषैले स्वभाव से बेख़बर वे उसे आनन्द वन ले आए. पहले तो फूलों वाले पौधों ने
नाक-भौं सिकोड़ी, फिर सोचा, चलो रह लेगा.
थोड़ी सी जगह ही तो चाहिए उसे. हो सकता है, हमारे बीच रहकर वह
अपने स्वभाव को भूल जाए. काँटों को झाड़कर फूलों वाला बन जाए.”
“मगर आनन्द वन पहुँचने से
पहले यह कैक्टस रहता कहाँ था? क्या उसका कोई
नहीं था?”
“था क्यों नहीं?
सब थे. वह कैक्टस प्रदेश में विद्याध्ययन करने गया था. वहाँ परिवार भी
बसाया. जब कैक्टस प्रदेश से निकलने का समय आया तो अपने नन्हें कैक्टस और कैक्टसनी को
वहीं छोड़कर आ गया. फिर कभी उनकी कोई खोज-ख़बर भी नहीं ली.
शायद मन के किसी कोने में
भावनाएँ थीं, मगर परिवार त्यागने का इन भावनाओं पर
विपरीत असर हुआ. वह अधिकाधिक विषैला और कंटीला होने लगा. फूलों वाले सुंदर पौधों को
उसने लहुलुहान कर दिया. उद्विग्न होकर अनेक पौधे वहाँ से स्थानांतरित हो गए,
कुछ समाप्त भी हो गए. यूँ समझो, कि कटु भावनाओं
का प्रवाह आनन्दवन से आनन्द को बहाकर ले गया.”
“मगर,
बेताल, मुझे एक बात समझ में नहीं आ रही. वह कैक्टस
तो अकेला था ना! उसे सभी फूल वाले पौधों ने मिलकर बाहर क्यों नहीं खदेड़ दिया?”
“जब तक वे संभलते,
काफ़ी देर हो चुकी थी. इस एक कैक्टस की देखा-देखी अनेक कैक्टस वहाँ आकर
बस गए थे. अब तो हालत यह हो गई है, कि वहाँ पुष्पाच्छादित पौधे
बस दो चार ही रह गए हैं. अब यह आनन्द वन कैक्टस-वन बन गया है. जहाँ-तहाँ विषैलापन,
कंटीलापन, द्वेष, ईर्ष्या;
सद्सद् विचार न जाने कहाँ लुप्त हो गए हैं, भूले-भटके
यदि कोई बुद्धिमान, सीधा-सादा पौधा यहाँ पनपना भी चाहे,
तो ये कैक्टस उसे कांटे चुभा-चुभाकर हैरान किये देते हैं. उनके ज़हर से
वह जी भी नहीं पाता.”
“तो फूलों वाले पौधों को अलग
उद्यान में लगाएँगे. इन कैक्टसों को प्रेम से रहने दो.”
“प्रेम से?
प्रेम शब्द तो उनके शब्द-कोष में ही नहीं है. वे सभी तो कंटीले हैं.
किसी और फूल वाले पौधे को न पाकर वे एक दूसरे को ही अपने कांटे चुभोते हैं. जब वे निकट
आते, तो फूलदार पौधा मित्र समझकर अपना हाथ आगे बढ़ाता,
हाथ मिलाते ही कैक्टस के कांटों से लहुलुहान हो जाता.”
“याने,
कहीं ऐसा तो नहीं, कि यह कैक्टस भले पौधे को ज़ख़्मी
करने के इरादे से ही मित्रता का ढोंग रचाते हुए उसके गले पड़ जाता हो?”
“बिल्कुल यही! शिकार को फाँसना,
उससे निकटता बढ़ाना, उसे आहत करना और पराजित करना...ऐसी
है इनकी कार्यशैली.”
“मगर बेताल,
तुम कह रहे हो कि ये कैक्टस एक दूसरे को भी अपने कांटे चुभो देते हैं.
अपनों पर तो कोई इस तरह वार नहीं करता.”
“कहाँ के अपने,
राजाजी! कैक्टसों की दुनिया में कोई अपना नहीं होता. सभी दुश्मन होते
हैं. काँटे चुभोना उनका धर्म है, वरना भीतर का ज़हर कैसे कम होगा?
अगर ज़हर कम नहीं होगा तो यही ज़हर उनके अपने अस्तित्व को भी तो समाप्त
कर देगा न! इसलिए वे कांटे चुभोते रहेंगे.”
“इस सबका अन्त?”
“अब तो ये कैक्टस एक दूसरे
पर भी खुलकर वार कर रहे हैं, शराफ़त का मुखौटा लगाए.
ताज्जुब की बात तो ये है कि हर कैक्टस दूसरे कैक्टस की फ़ितरत को ख़ूब समझता है. जानता
है, कि सामने वाला कैक्टस उसे नुक्सान पहुँचायेगा, अतः उसके आक्रमण को कम असरदार बनाने के लिए अपने काँटे तेज़ करता रहता है,
ज़हर की मात्रा को बढ़ाता रहता है.”
“याने युद्ध भीषण से भीषणतर
हो चला है. तो, सबसे पहले वाले कैक्टस के अब क्या हालचाल
हैं?”
“वह साधु-सन्यासियों जैसी,
बुद्धिजीवियों जैसी वेषभूषा में, अपने कांटे छिपाए
बैठा है. जब कोई ख़ुद उसके निकट आता है, तो कांटे चुभो देता है,
वरना अक्सर शाम को टहलने निकलता है और आने-जाने वालों को कांटे चुभो-चुभोकर
वापस लौट आता है.”
“शरीफ़ बन गया है?”
“असंभव! शरीफ़ वह बन नहीं सकता.
बनेगा तो कांटे न चुभा पायेगा...अर्थात् स्वयँ ही अपने विष से समाप्त हो जाएगा. अभी
वह कैक्टस-युद्ध को देखता रहता है, कभी-कभी अन्य कैक्टसों
को सलाह भी दे दिया करता है. मगर इस ख़तरे से भी वह बुद्धिजीवी कैक्टस अनजान नहीं है,
कि इस सब का आरंभ भी उसी ने किया था. इस बढ़ते हुए ज़हर का ज़िम्मेदार वह
स्वयम् ही है.
और,
हो सकता है कि कभी अन्य सभी कैक्टस उसी को अपना निशाना बना लें,
तब वह अपनी रक्षा कैसे करेगा? अतः मौन साधना से
अपने ज़हर को बढ़ाता हुआ नित नई युद्ध प्रणालियों पर विचार करता रहता है यह बुद्धिजीवी
कैक्टस.”
“इस सबका अन्त?”
विक्रम ने पूछा.
“मालूम नहीं…”
बेताल का जवाब था.
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