Monday, 24 September 2018

पूछे विक्रम, बोले बेताल - 12



12. राजनीति में झूठ

अफ़लातून 

उस दिन टहलते-टहलते विक्रम और बेताल पहुँच गए सौभाग्य नगर के विमानपत्तन के निकट. देखा कि चारों ओर बड़ी गहमागहमी का वातावरण है. कई लोग बड़ी-बड़ी फूल मालाएँ लिए खड़े थे. चेहरों पर उत्सुकता एवम् उत्तेजना! इतने में बड़ा-सा विमान धरती पर उतरा. फूल मालाएँ लिए लोग उस ओर भागने लगे, मगर उन सब को विमान के निकट भला कौन जाने देता! सुरक्षा कर्मियों ने केवल एक-दो व्यक्तियों को ही आगे बढ़ने दिया.

विक्रम की उत्सुकता मुँह उठाने लगी, उसने बेताल से कुछ कहने के लिए मुँह खोला ही था, कि बेताल बोला, “चलो, राजा जी, नज़दीक चल कर देखते हैं कि माजरा क्या है.”

विक्रम तो तैयार ही था, उसने सिर हिला दिया. दोनों गुप्त रूप से विमान के निकट पहुँचे. विमान का द्वार खुला और...चिर-परिचित चेहरे को बाहर निकलते देख कर विक्रम के मुँह से निकल गया: राजकुमारी स्वर्णलता?’
“ख़ूब पहचाना, राजा जी!” बेताल ने ख़ुश होकर कहा.
विक्रम ने आगे पूछा, “यह यहाँ क्या कर रही है?”
बेताल बोला, “राजा जी, मैंने तुम्हें बताया था न कि चुनाव निकट आ रहे हैं, इसीलिए राजकुमारी जी यहाँ पधारी हैं.”
“इतनी दूर?” विक्रम मानो इस बात को मानने के लिए तैयार ही नहीं था, “क्यों?”

बेताल ने कहा, “स्वर्णलता की अंतिम इच्छा तो साम्राज्ञी पद पाने की है, यह तो तुम जान ही चुके हो. इसके लिए चुनावों में जीतना भी तो पड़ेगा. जीतेगी भी तभी जब उसे अपने प्रतिद्वंद्वियों की अपेक्षा अधिक मत प्राप्त होंगे. वे सही व्यक्ति को ही निर्वाचित करते हैं. स्वर्णलता कोई ख़तरा मोल लेना नहीं चाहती, अतः छोटे-छोटे गाँवों से चुनाव मैदान में उतर रही है. सौभाग्य नगर से वह उसी गाँव को जाएँगी, जहाँ से उन्हें चुनाव लड़ना होगा.”

“मतलब, कहाँ जाएँगी?”
“चलो, विक्रम, निकट जाकर उनकी बातें सुनते हैं, शायद कुछ पता चल जाए.” बेताल ने सुझाव दिया.

वे बिल्कुल निकट पहुँचे. राजकुमारी स्वर्णलता के साथ स्वाधीन कुमार जी थे. उन दोनों को फूल मालाएँ लिए कुछ लोगों ने घेर रखा था. वहीं पर अनेक लोग हाथों में कुछ ऊपर को उठा-उठाकर लगातार बिजलियाँ कौंधाए जा रहे थे. विक्रम ने पूछा, “ये बिजलियाँ क्यों कौंध रही हैं?”

बेताल ने समझाया, “ये लोग राजकुमारी की तस्वीरें ले रहे हैं और उनसे प्रश्न पूछ रहे हैं चुनाव के बारे में.”
“मगर राजकुमारी तो कुछ बोलती ही नहीं, उन्होंने इतना बुरा मुँह क्यों बना रखा है? जिस प्रजा से प्रेम करने का, उसकी सेवा करने का ढोंग उन्हें करना है, उससे वह दो मीठे शब्द भी नहीं कह सकतीं. देखो, उन लोगों को स्वाधीन कुमार जवाब दे रहे हैं.”

इतने में स्वाधीन कुमार ने कहा, “राजकुमारी जी शाम को आप लोगों से मिलेंगी.”

एक सज्जन ने पूछा, “राजकुमारी जी कहाँ से चुनाव लड़ेंगी?”

जवाब था, “पाषाणपुर से, शायद.”

कहीं ओर से आवाज़ आई, “हमने तो सुना कि वे निद्रानगर जा रही हैं?”

स्वाधीन कुमार कुछ सकपकाए और बोले, “यदि उन्हें निद्रानगर ही जाना होता तो हम यहाँ क्यों आते?”

इसी बीच राजकुमारी तेज़-तेज़ कदमों से आगे बढ़ गईं, कुछ देर बाद मोटर में बैठ कर कुछ लोग एक दिशा में, पाषाणपुर की दिशा में चले गए. राजकुमारी एक खुले विमान में उड़ गईं. मगर बेताल तो बेताल ही था, विक्रम को साथ-साथ लिए वह उस नन्हे विमान के साथ ही उड़ता रहा और जब विमान नीचे उतरा तो दोनों ने देखा कि वे पाषाणपुर नहीं, अपितु निद्रानगर पहुँचे हैं.

विक्रम को यह अच्छा नहीं लगा. उसने सोचा कि स्वर्णलता प्रजा से, कार्यकर्ताओं से झूठ बोल रही है. उसने बेताल से पूछा कि स्वर्णलता निद्रानगर क्यों आई हैं, जबकि लोगों को यह बताया गया है कि वह पाषाणपुर से चुनाव में खड़ी होंगी.”

बेताल हँस पड़ा, “अमाँ, विक्रम स्वर्णलता को सबसे बड़ा ख़तरा है अपने विरोधी से. मगर उससे भी ज़्यादा ख़तरा है उन्हें अपनी मूढ़ता से. उन्होंने जनता के लिए कुछ किया तो नहीं है, उनकी भाषा, उनके रीति-रिवाज, उनके दुख-दर्द – कुछ भी तो नहीं जानती वह. जबकि उनकी विरोधी है होनहार, कुशल महिलाएँ. यदि वह पाषाणपुर से चुनाव में उतरती तो उसका सामना करतीं दीन-दुखियों की, अबलाओं की सखी स्नेह प्रभा.”

“और यहाँ निद्रानगर में उनके ख़िलाफ़ कौन खड़ा होगा?”

“स्वर्णलता ने पाषाणपुर का नाम झूठमूठ इसलिए लिया था राजा जी, कि किसी को निद्रानगर की भनक तक न मिले और विरोधी पक्ष सोया हुआ ही रहे तथा उसके विरोध में अपना कोई उम्मीदवार खड़ा न कर पाए. तब चुनाव जीतना उसके लिए आसान होगा.”

“तो अब, स्वर्णलता की जीत निश्चित ही समझो!” राजा ने फ़िकरा कसा.

“कहाँ की जीत राजा जी, देखो, ज़रा स्वर्णलता की विरोधी उम्मीदवार के दर्शन तो कर लो!”

विक्रम ने देखा, गौरवर्ण महिला, शालीन गरिमामय व्यक्तित्व, बड़ी-बड़ी आँखों से विद्वत्ता झलक रही थी, माथे पर बड़ी सी बिन्दी, माँग में सिंदूर, चेहरे पर मुस्कान, अपनत्व बिखरा पड़ रहा था उस व्यक्तित्व से.

बेताल ने बताया, “ विक्रम, ये सुमेधा देवी हैं. नाम के समान ही मेधावी, मृदु एवम् मितभाषिणी, बड़ी होनहार हैं स्वर्णलता की प्रतिद्वन्द्वी.”
“मगर, बेताल, ये भी तो वहीं से आई हैं न जहाँ से स्वर्णलता आई है. इन्हें कैसे पता चला स्वर्णलता की निद्रानगर की यात्रा का?”
“यही तो कमाल है. स्वर्णलता एवम् स्वाधीन कुमार स्वयम् को बड़ा चतुर समझते हैं. नाटक तो उन्होंने ख़ूब किया सुमेधा देवी के दल की दिशाभूल करने का. मगर वे लोग सोए थोड़े ही हैं. टक्कर तो काँटे की रहेगी. उन्हें जैसे ही निद्रानगर वाली बात का ज्ञान हुआ, उन्होंने फ़ौरन सुमेधा देवी को वहाँ भेज दिया.”
“मगर वहाँ की जनता शायद स्वर्णलता को बहुत चाहती है तभी तो देखो इतनी घनघोर बारिश में भी चीख़-चीख़ कर कह रही है, “हम तुम्हारे साथ हैं.”
“अरे, उस चीख़ने पे मत जाओ. बारिश में एक घण्टा चिल्लाने के लिए उन्हें काफ़ी धन दिया गया है.”
“मतलब, उन्हें पहले से ही बुलाया गया था? मतलब, कुछ लोगों को, मतलब, स्वाधीन कुमार को भली-भांति मालूम था कि उन्हें कहाँ जाना है! फिर वे झूठ क्यों बोले?”
“झूठ तो राजनीति का अभिन्न अंग है, राजाजी! असल में वे विरोधियों को धोखे में रखना चाह रहे थे, अपनी ही चाल पर ख़ुश हो रहे थे, मगर सुमेधा देवी इतनी तत्परता से वहाँ पहुँच जाएँगी इसका तो उन्हें सपने में भी ख़याल नहीं आया होगा. तभी तो, देखो न, स्वर्णलता का मुखमंडल कितना चिंताग्रस्त, तनावग्रस्त प्रतीत हो रहा है. तस्वीर उतारने वाले उन्हें लगातार कह रहे हैं, कृपया थोड़ा मुस्कुराइए, मगर मुस्कान है कि चेहरे पर आ ही नहीं रही.”
“देखो, देखो बेताल, मुस्कुरा दी स्वर्णलता!”

इतने में स्वाधीन कुमार बोले, “अब राजकुमारी जी हमेशा मुस्कुराती रहेंगी.”

विक्रम की हैरानी का कोई ठिकाना न था. स्वर्णलता के आचरण पर उसे क्षोभ हो रहा था. वह उसकी कथनी और करनी के अंतर को पचा नहीं पा रहा था. कुछ माह पूर्व तो उसे राजनीति से घृणा थी, फिर वह राजनीति में आई, तो अपने ही स्वार्थ की ख़ातिर. दल में सर्वोच्च पद हथिया बैठी.
कोई उसके सम्मुख शीश उठाकर बात करे, दो-टूक बात करे तो कोप भवन में चली जाती है, अब वह सर्वेसर्वा बन जाना चाहती है.

बेताल विक्रम की मनःस्थिति को भाँपते हुए बोला, “ज़्यादा न सोचो, राजा जी. कुछ ही दिनों में चुनाव परिणाम आ जाएँगे. तब स्वर्णलता को स्वाधीन कुमार के कहने से मुस्कुराना नहीं पड़ेगा.”
“कहीं तुम यह तो नहीं कहना चाहते, बेताल, कि इसके बाद उनकी हँसी लुप्त हो जाएगी?”
विक्रम से रहा न गया.

“मालूम नहीं...” बेताल का जवाब था.

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Sunday, 23 September 2018

पूछे विक्रम, बोले बेताल - 11



11. “बस यूँ ही...”

अफ़लातून

उस दिन बेताल और विक्रम शहर में ही टहल रहे थे. अचानक एक घर के सामने भीड़ देखकर विक्रम ने पूछा:
“यहाँ क्या हुआ है, बेताल? कोई अनहोनी?”
“नहीं, विक्रम, भीड़ तो किसी भी कारण से जमा हो जाती है. इस घर में एक ख़ुशी की बात हुई है!”
“फिर, ये पुलिस, कैमेरे वाले...?”
“चलो, राजाजी, तुम्हें पूरी बात बताता हूँ, बस, मुझे बीच में टोकना नहीं और कोई सवाल भी नहीं पूछना...”
 विक्रम ने हाँ कर दी.

बेताल बताने लगा:
“ये घर सव्यसाची का है. सव्यसाची बड़ा आदमी है – एक बड़ी कम्पनी का मैनेजिंग डाइरेक्टर. मल्टीनेशनल कम्पनी का डाइरेक्टर होना कोई मज़ाक की बात नहीं होती. अनेक योग्यताओं के साथ ही बिना थके, बिना रुके कार्य करने की क्षमता होना अत्यंत आवश्यक है. रुके तो, सुस्ताए तो, न जाने कब मार्केट के उस अजस्त्र चक्र से बाहर फेंक दिए जाओगे. तनख़्वाह काफ़ी मोटी मिलती है. जीवन की छोटी-छोटी ख़ुशियों से, परिवार के सदस्यों से न जाने कब महरूम हो गए, पता ही नहीं चला. न जाने बच्चे कब बड़े हो गए, क्या-क्या डिग्रियाँ उन्होंने प्राप्त कर लीं, मैंने जाना ही नहीं. घर वापस आओ तो सभी अपने कामों में व्यस्त, या फिर सोए हुए मिलते. मुझे सुकून के कुछ पल मिलें, इसलिए कोई भी अपनी रोज़मर्रा की समस्याएँ मेरे पास नहीं लाता, मगर मैं तो, इसी कारण, अपनों से बेगाना हो गया. कभी-कभी तो जी करता है, कि यह सब छोड़कर चले जाओ, मगर क्या यह संभव है? नहीं, मुझे तो प्रतियोगिता के भय से घूमते ही रहना है, तेज़...और तेज़...

देर रात को कार में घर लौटते हुए सव्यसाची यही सब सोच रहा था. गनीमत थी कि कार ड्राइवर चला रहा था, वर्ना, अपने ही विचारों में डूबे-डूबे वह तो एक्सीडेंट ही कर बैठता.

याद आया उसे कॉलेज का ज़माना. सभी सहपाठी अधिक से अधिक धन अर्जित करने वाली नौकरी पाने की होड़ में प्रसिद्ध, सुप्रसिद्ध, अतिप्रसिद्ध मैनेजमेंट इन्स्टीट्यूट में दाखिला पाने के लिए तरस रहे थे. सव्यसाची भी जी तोड़ मेहनत कर रहा था. परिवार के सदस्यों को, ख़ासकर माता-पिता को काफ़ी उम्मीदें थीं उससे. उच्च-मध्यम वर्ग वाले परिवार का यह बेटा धनाढ्य वर्ग में शामिल होने के सपने देख रहा था.

उसके सपने पूरे भी हुए. कलकत्ता के मैनेजमेंट संस्थान में उसे प्रवेश मिल गया तो सभी ख़ुशी से फूले न समाए. यार-दोस्तों के अभिवादनों में छिपी ईर्ष्या के पुट को भी वह शीघ्र ही भूल गया. देखते-देखते, दो वर्ष बीतते-बीतते एक अत्यंत प्रसिद्ध मल्टीनेशनल कम्पनी में सव्यसाची को नौकरी भी मिल गई. ज़ाहिर था, शादी भी शीघ्र ही हो गई, सव्यसाची नौकरी में पदोन्नति प्राप्त करता रहा और पत्नी, शची, उसके हर मूड को संभालती, उसका साथ देती रही. परिवार की कोई भी समस्या क्यों न हो, चाहे बच्चों का एडमिशन हो, या कोई बीमार हो, या कोई पार्टी हो, या घर में ही कोई उत्सव हो, सभी कुछ तो संभाल लेती थी शची! सव्यसाची बस नौकरी करता, तरक्की पाता, कम्पनी की प्रतिष्ठा को संभालते हुए आगे बढ़ता रहता.

मगर उम्र तो बढ़ती है. पचास वर्ष की आयु प्राप्त करते-करते सव्यसाची को बड़ी तीव्रता से महसूस होने लगा, कि वह कुछ उकता गया है, उसी एकसार वातावरण से काफ़ी थक गया है, मगर मार्केट की जानलेवा होड़ में फुर्सत के चंद पल भी निकाल पाना असंभव था. शची सब कुछ देखती, मगर लाचार थी, उसे पति की प्रतिष्ठा, उसकी थकावट, मार्केट में दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही होड़ से अब कुछ भय-सा लगने लगा था. पति के पीछे साये की तरह रहना चाहती वह, मगर ऐसा करना संभव तो नहीं था.

प्रतिदिन की भाँति सव्यसाची सुबह-सुबह सैर को निकला. यही एक आदत थी, जो उसने अब तक छोड़ी नहीं थी. बल्कि यूँ कहिए कि शरीर की मशीन को चालू हालत में रखने के लिए यह प्रातःकालीन सैर बड़ी आवश्यक थी. सुबह पाँच बजे निकल जाता सव्यसाची और करीब घण्टे भर बाद वापस आकर अपनी दिनचर्या में लीन हो जाता.

मगर उस दिन साढ़े छह बज गए, सात, आठ, नौ भी बज गए, मगर सव्यसाची न लौटा. शची उसके टहलने के रास्ते से परिचित थी, स्वयँ कार निकलवाकर देख आई...नहीं, रास्ते में कहीं कोई दुर्घटना नहीं हुई थी. वापस आकर सभी परिचितों को फ़ोन किए, रिश्तेदारों से पूछा...कोई पता नहीं.

हार कर पुलिस में शिकायत दर्ज करनी ही पड़ी.

पुलिस में कम्प्लेंट लिखवाने की ही देर थी, कि सभी अख़बारों में, रेडिओ पर, दूरदर्शन पर सव्यसाची के गायब होने की ख़बर आ गई. पुलिस की खोज शुरू हो गई. उसके दोस्तों, दुश्मनों, कम्पनी के सहयोगी अफ़सरों से पूछताछ की गई. कम्पनी में सव्यसाची लोकप्रिय ही था, किसी से उसकी दुश्मनी भी नहीं थी. कोई अन्य कम्पनी इस कम्पनी को हड़पने की मंशा भी नहीं रखती थी. फिर...?
अस्पताल गए, हो सकता है, अति थकान के कारण सव्यसाची कहीं गिर तो नहीं गया? मगर कोई लाभ न हुआ. शची का रो-रोकर बुरा हाल था. निकटतम रिश्तेदार भी आ गए थे, बच्चे अलग परेशान थे, बड़ा बेटा लगातार टेलिफोन के पास बैठा रहा और छोटा बार-बार पुलिस थाने जाकर पूछ आता, कि उसके पापा की कोई ख़बर तो नहीं आई.

अब एक ही अनुमान लगया जा रहा था, कि हो न हो, सव्यसाची का अपहरण ही किया गया होगा. फिर...यदि वे धन की मांग करें तो, यदि कम्पनी के कोई भेद मालूम करना चाहें तो...

मगर अपहरण कर्ताओंकी ओर से कोई फोन भी नहीं आया.

एक दिन बीत गया. घर में किसी ने भी खाना नहीं खाया. दूसरा दिन भी बीता. आज समाचार पत्रों में और टी.वी. चैनल्स पर बस इतना कहा गया, कि सव्यसाची की अब तक कोई ख़बर नहीं मिली है.

तीसरा दिन...लगता था कि सभी प्रचार-प्रसार के माध्यम सव्यसाची को भूल गए हैं. फिर तो दिन बीतते रहे...सिर्फ परिवार वालों को छोड़कर कोई भी उसके लिए परेशान नहीं था.

और फिर...एक बार फिर अख़बार में सव्यसाची की फोटो छपी, वह लौट आया था, सकुशल!

परिचितों, सहयोगियों का तांता लग गया उसके घर. पुलिस वाले, सी.आई.डी. वाले सवाल पूछ-पूछकर अलग हैरान किए दे रहे थे. थक गया सव्यसाची दुहरतए-दुहराते, कि उसे नहीं मालूम, कि उसे कौन ले गया था, कहाँ और क्यों ले गया था.

उस दिन सुबह, जब वह सैर को निकला था, तो अचानक दो आदमियों ने उसे दबोच कर कार में डाल दिया और किसी अज्ञात स्थल की ओर ले चले. सव्यसाची को पीछे की सीट पर लिटा दिया गया, वह उठ नहीं पाए इसलिए वे ही दोनों, जिन्होंने उसे दबोच लिया था, उस पर बैठ गए. लिहाज़ा सव्यसाची देख ही नहीं पाया कि उसे कौन सी जगह ले जाया जा रहा है. गंतव्य तक पहुँचने पर उससे एक बड़ी रकम की माँग की गई, यह आदेश दिया गया कि वह अपने घर वालों को फ़ोन करके रकम पहुँचाने का बंदोबस्त करने के लिए कहे. सव्यसाची बोला कि यदि वह अपना घर और घर की एक-एक चीज़ भी बेच दे तब भी इतनी रकम प्राप्त नहीं कर सकता.

अपहरण कर्ताओं ने यह सोचकर, कि सव्यसाची की सांपत्तिक स्थिति का उन्होंने गलत अंदाज़ लगा लिया था, उसे आज़ाद करने का फ़ैसला कर लिया. उसे एक ट्रेन में बिठा दिया गया, जब कुछ देर बाद सव्यसाची कुछ संभला तो उसने खिड़की से झाँककर देखा और यह अनुमान लगाया कि वह कलकत्ता से अधिक दूर नहीं है. हावड़ा स्टेशन आते ही वह उतर गया और टैक्सी से अपने घर चला आया, बिना किसी खरोंच के, बिना किसी भय के लक्षण को ओढ़े. पुलिस एवम् पत्रकारों के प्रश्नों के उत्तर देते-देते वह इतना थक गया कि उसकी जीभ लड़खड़ाने लगी, आँखों के सामने अंधेरा छाने लगा, वह बेहोशी के आलम में जाने लगा.

शची ने प्रार्थना की कि उसके पति का मानसिक तनाव समाप्त होने तक उनसे कोई प्रश्न न किए जाएँ. वे थक गए हैं, उन्हें आराम की सख़्त ज़रूरत है.

सभी चले गए. सव्यसाची ने लम्बी तान दी, करीब दो घण्टे बाद वह उठा तो देखा कि बच्चे अपने-अपने काम पर चले गए हैं, रसोईघर से सोंधी-सोंधी ख़ुशबू आ रही है. वह उठा, झटपट स्नान करके किचन में आया और पीछे से आकर पत्नी का आलिंगन करते हुए बोला: “मान गया, तुम्हें! सचमुच, बड़ा आराम किया पूरे हफ़्ते! सारी थकान निकल गई! अब बढ़िया-सा खाना खिला दो, आज का दिन आराम करके कल से ऑफ़िस जाऊँगा.”

पत्नी भी मुस्कुरा रही थी. खाना खिलाते हुए बोली, “दूसरा उपाय भी तो न था. ना तो तुम छुट्टी लेते, ना कम्पनी तुम्हें छुट्टी देती. अपहरण हो जाने के बाद तो किसी का बस नहीं चलता न! बस, अब मुझे एक ही बात की चिंता ह, कहीं उन्हें सच का पता न चल जाए. वे यह न पूछ बैठें, कि क्या अपहरणकर्ताओं के पास पिस्तौल भी नहीं थी? उन्होंने तुम्हारे हाथ-पैर भी नहीं बांधे? तुम्हारे यह कहने पर कि तुम बड़ी रकम नहीं दे सकते, वे मान गए? तुम्हें छोड़ दिया? ट्रेन में बैठा दिया...एक खरोंच तक नहीं आई, चेहरे पर भय का कोई चिह्न तक नहीं! शायद, तुम कोई अच्छी सी कहानी गढ़ते...ख़ैर, फिक्र न करो, मैं सब संभाल लूँगी, मैं तुम्हारे साथ ही रहूँगी...”

सव्यसाची मुस्कुराया, बोला, “तुम्हीं ने यह तरकीब सुझाई थी, मुझे दीदी के घर, गाँव भेजने की, आराम करने के लिए...अब तुम्हीं सब संभालना...तुम्हारी बुद्धि पर मुझे पूरा भरोसा है.”

इतना कहकर बेताल चुप हो गया. विक्रम भी सोच में पड़ गया. बोला, “शायद शची ने ठीक ही किया था? जब घी सीधी उँगली से न निकले, तो कुछ न कुछ करना ही पड़ता है...तुम्हारा क्या ख़याल है, बेताल?”

“शायद, तुम ठीक कह रहे हो, विक्रम!” बेताल ने इस बार अलग जवाब दिया.

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Saturday, 22 September 2018

पूछे विक्रम, बोले बेताल - 10




10. मानव प्रेम
अफ़लातून


बाहर ज़ोरदार बारिश हो रही थी. विक्रम ने कहा, “बेताल, आज यहीं बैठकर बारिश का मज़ा लेते हैं, एक अलाव जला लेंगे, कुछ मूंगफलियाँ खाएँगे और तुम कुछ सुनाना.”

बेताल भी सहमत हो गया.दोनों अलाव के निकट बैठे और हल्की-हल्की गरमाहट से जब उनके चित्त प्रसन्न हो गए तो विक्रम ने कहा, “ बेताल, यह अग्निभी बड़ी रहस्यमय है, अभी, जब अलाव के रूप में है, तो बड़ी सुखद प्रतीत हो रही है, मगर यदि विराट रूप धारण कर ले तो विनाश का कारण बन जाए.”

“ठीक कहते हो, राजा विक्रम! अग्नि या आग या फिर अगन ही कह लो इसे, यदि घर के चूल्हे में ही सीमित रहे तो घर के सदस्यों के लिए भोजन देती है, मगर इसका चूल्हे से बाहर आना अनर्थ ढा देता है. फिर घर में आग लग जाती है.घर में आग कोई भी लगा सकता है: पड़ोसी, शत्रु या मित्र के रूप में अशुभचिंतक, या बहू, या सौतेली संतान. यदि कभी अनहोनी हो जाए तो घर के चिरागसे भी आग लग जाती है.

बेताल ने आगे कहा, “विक्रम. आजकल कई शब्दों के साथ अग्निया आगया अगनका प्रयोग किया जाता है, जैसे : बदले की आग, कामाग्नि, प्रेम-अगन, क्षुधाग्नि...”

“बस, बस,” विक्रम ने कहा, “मुझे ये सभी शब्द अच्छे नहीं लग रहे हैं.”

“तुम्हें अच्छे लगें या न लगें, राजाजी, मगर जीवन की व्याख्या सिर्फ शब्दों के माध्यम से ही की जाती है. सुनो, तुम्हें एक कहानी सुनाता हूँ. कहानी पुरानी है, सभी की जानी-पहचानी है:

“एक बार एक शब्दकोष में एक नन्हा-सा कीड़ा घुस गया. इस शब्द जाल में फँसकर वह घबरा गया, लोटने लगा, बाहर निकलने की कोशिश करने लगा, मगर कोई राहत न मिली. पृष्ठ-दर-पृष्ठ रेंगता रहा, कोई भी शब्द उसे बाँध न पाया. थका-हारा कीड़ा हाथ जोड़कर ईश्वर की प्रार्थना करने लगा, “हे सर्वशक्तिमान, यदि इस विराट वस्तु से मुझे मुक्ति नहीं दिलाना चाहते, तो यहीं कोई ठोर-ठिकाना बना दो मेरे लिए, मैं कहीं तो रुकूं, यूँ रेंगते-रेंगते, बिना अन्न-जल के मेरा होगा क्या!”

ईश्वर को उस पर दया आ गई और उन्होंने उसे बुद्धि प्रदान कर दी. अब वह शब्दों के अर्थ महसूस करने लगा, उन शब्दों में, जिन पर वह रेंगता, यदि कोई शब्द पसंद आ जाता तो वहीं कुछ देर ठहरता, सोचता और आगे बढ़ जाता. एक दिन वह पहुँचा बचपनशब्द पर. यह शब्द उसे बहुत भाया, उसने वहीं डेरा डालने का निश्चय कर लिया. अब कीड़ा बचपनशब्द वाली चौखट में रहने लगा. कभी-कभार वहाँ से घूमने निकलता और मिठाई, चॉकलेट, दूध, बाग, खेल, स्नेह, हँसना, खिलखिलाना, मुस्कुराना, पैर पसारना, ज़िद करना, सो जाना आदि शब्दों पर चला जाता और उनकी सैर करके वापस बचपनवाले ख़ाने पर लौट आता. चिंता, भय, ईर्ष्या-द्वेष आदि शब्दों के निकट भी वह न फटकता.

मगर एक दिन उसने सोचा, कि इस विराट वस्तु में इन शब्दों के अलावा भी तो कुछ और शब्द होंगे, क्यों न घूमकर देखूँ! वह पहुँचा पाठशालाशब्द पर और इसी शब्द पर अधिकांश समय बिताने लगा. अब पुस्तक, पाठ, परीक्षा, अध्ययन यही शब्द उसे भले लगते. पाठशालाशब्द को जब उसने भली-भाँति समझ लिया, तो वह चला विश्वविद्यालयशब्द की ओर. अब उसे बचपनशब्द वाला अपना चौख़ाना छोटा प्रतीत होने लगा, सो उसने यौवनशब्द पर घर बना लिया. यह जगह उसे उत्साह और शक्ति से भरपूर प्रतीत हुई. यहीं रहते-रहते प्रेमशब्द से उसका परिचय हुआ. मगर इस शब्द पर वह ऐसा रुका, कि उसके शब्दों की दिशा ही बदल गई. अब वह पुस्तक, वाचनालय, अध्ययन आदि शब्दों के चक्कर लगाना एकदम भूल गया.भूख, प्यास, खाना, सोना शब्दों पर तो उसका ध्यान ही नहीं जाता. वह खोया रहता चांद, सितारा, बादल, सागर में. नींद शब्द के पास तक न फटकता.

“फिर क्या हुआ?” विक्रम की उत्सुकता बोल ही पड़ी.

“वही हुआ, जो भूखे प्यासे पड़े रहने से होता है. वह नन्हा-सा जीव मृत्यु नामक शब्द के पास गया और वहीं निश्चल पड़ा रहा. उसमें इतनी भी शक्ति न बची कि वहाँ से सरक पाता. वह वहीं पड़ा रहा. एक दिन उस किताब की सफ़ाई करने वाले ने उसे बाहर निकाल कर फेंक दिया.”

“यह तो बहुत बुरा हुआ. मैंने तो सुना था कि प्रेमशब्द में बड़ी शक्ति होती है. उस बेचारे का तो प्रेम ने ही बेड़ा गर्क कर दिया. अब अगर प्रेमशब्द की यही परिणति है, तो क्या फिर भी तुम कहोगे कि जीवन शब्दों का खेल है?”

“हाँ,” बेताल ने जवाब दिया. “देखो, राजाजी जीवन को कभी-न-कभी तो समाप्त होना ही है. उस समाप्त होने की प्रक्रिया में अलग-अलग व्यक्तियों को अलग-अलग शब्द-जालों से होकर गुज़रना पड़ता है. यहाँ नन्हा-सा जीव प्रेमके पश्चात् सागर, बादल, एकान्त... आदि शब्दों से गुज़रा, इसीलिए मृत्युतक शीघ्रता से पहुँच गया. यदि वह प्रेमके पश्चात् जीवन साथी, व्यवसाय आदि शब्दों पर पहुँचता तो फिर उसकी राह सुख, सम्पन्नता, दीर्घायु आदि शब्दों से होकर गुज़रती. शब्दों का चयन करना उसके वश में था. वह रास्ता भूल गया, इसीलिए उसका अंत दुखद रहा.”

“कहीं तुम ये तो नहीं कहना चाहते, कि प्रेम वरदान भी हो सकता है, और अभिशाप भी?”

“ठीक समझे, राजा जी! प्रेम तो एक उदात्त भावना है. वह मानव को शक्ति, चारित्रिक दृढ़ता, उदारता प्रदान करती है. ये ही गुण तो उसे आगे बढ़ने में सहायता प्रदान करते हैं. प्रेम को संकुचित न किया जाए, उसे मानव-प्रेम का रूप दे दिया जाए तो स्वार्थ, सत्ता-लोलुपता, बेईमानी इत्यादि शब्दों की शब्दकोष में आवश्यकता ही न रहेगी. कुछ समझे?”

“मुझे यह सब समझने में देर लगेगी, क्योंकि जिस प्रेम को मैं जानता हूँ, वह केवल मानव-प्रेम ही है. मगर मैं देख रहा हूँ, कि तुम काफ़ी दार्शनिक हो गए हो, आधुनिक जीवन को काफ़ी निकटता से देख रहे हो.ख़ैर, यह तो बताओ, कि अभी जिस मानव-प्रेम की सीमा की बात तुमने की, वहाँ तक क्या तुम्हारा आधुनिक मानव पहुँच पाएगा?”

“मालूम नहीं....” बेताल ने चिंता में डूबकर कहा.

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पूछे विक्रम, बोले बेताल - 12

12. राजनीति में झूठ अफ़लातून  उस दिन टहलते-टहलते विक्रम और बेताल पहुँच गए सौभाग्य नगर के विमानपत्तन के निकट. देखा कि चारों ओर बड़...