12. राजनीति में झूठ
अफ़लातून
उस
दिन टहलते-टहलते विक्रम और बेताल पहुँच गए सौभाग्य नगर के विमानपत्तन के निकट.
देखा कि चारों ओर बड़ी गहमागहमी का
वातावरण है. कई लोग बड़ी-बड़ी फूल मालाएँ लिए खड़े थे. चेहरों पर उत्सुकता एवम्
उत्तेजना! इतने में बड़ा-सा विमान धरती पर उतरा. फूल मालाएँ लिए लोग उस ओर भागने
लगे, मगर उन सब को विमान के निकट भला कौन जाने देता!
सुरक्षा कर्मियों ने केवल एक-दो व्यक्तियों को ही आगे बढ़ने दिया.
विक्रम
की उत्सुकता मुँह उठाने लगी,
उसने बेताल से कुछ कहने
के लिए मुँह खोला ही था,
कि बेताल बोला, “चलो,
राजा जी, नज़दीक चल कर देखते हैं कि माजरा क्या है.”
विक्रम
तो तैयार ही था,
उसने सिर हिला दिया.
दोनों गुप्त रूप से विमान के निकट पहुँचे. विमान का द्वार खुला और...चिर-परिचित
चेहरे को बाहर निकलते देख कर विक्रम के मुँह से निकल गया: ‘राजकुमारी स्वर्णलता?’
“ख़ूब
पहचाना, राजा जी!” बेताल ने ख़ुश होकर कहा.
विक्रम
ने आगे पूछा,
“यह यहाँ क्या कर रही है?”
बेताल
बोला, “राजा जी,
मैंने तुम्हें बताया था
न कि चुनाव निकट आ रहे हैं,
इसीलिए राजकुमारी जी
यहाँ पधारी हैं.”
“इतनी
दूर?” विक्रम मानो इस बात को मानने के लिए तैयार ही नहीं था, “क्यों?”
बेताल
ने कहा, “स्वर्णलता की अंतिम इच्छा तो साम्राज्ञी पद पाने की है, यह तो तुम जान ही चुके हो. इसके लिए चुनावों में
जीतना भी तो पड़ेगा. जीतेगी भी तभी जब उसे अपने प्रतिद्वंद्वियों की अपेक्षा अधिक
मत प्राप्त होंगे. वे सही व्यक्ति को ही निर्वाचित करते हैं. स्वर्णलता कोई ख़तरा
मोल लेना नहीं चाहती,
अतः छोटे-छोटे गाँवों से
चुनाव मैदान में उतर रही है. सौभाग्य नगर से वह उसी गाँव को जाएँगी, जहाँ से उन्हें चुनाव लड़ना होगा.”
“मतलब, कहाँ जाएँगी?”
“चलो, विक्रम,
निकट जाकर उनकी बातें
सुनते हैं, शायद कुछ पता चल जाए.” बेताल ने सुझाव दिया.
वे
बिल्कुल निकट पहुँचे. राजकुमारी स्वर्णलता के साथ स्वाधीन कुमार जी थे. उन दोनों
को फूल मालाएँ लिए कुछ लोगों ने घेर रखा था. वहीं पर अनेक लोग हाथों में कुछ ऊपर
को उठा-उठाकर लगातार बिजलियाँ कौंधाए जा रहे थे. विक्रम ने पूछा, “ये बिजलियाँ क्यों कौंध रही हैं?”
बेताल
ने समझाया, “ये लोग राजकुमारी की तस्वीरें ले रहे हैं और उनसे
प्रश्न पूछ रहे हैं चुनाव के बारे में.”
“मगर
राजकुमारी तो कुछ बोलती ही नहीं,
उन्होंने इतना बुरा मुँह
क्यों बना रखा है?
जिस प्रजा से प्रेम करने
का, उसकी सेवा करने का ढोंग उन्हें करना है, उससे वह दो मीठे शब्द भी नहीं कह सकतीं. देखो, उन लोगों को स्वाधीन कुमार जवाब दे रहे हैं.”
इतने
में स्वाधीन कुमार ने कहा,
“राजकुमारी जी शाम को आप
लोगों से मिलेंगी.”
एक
सज्जन ने पूछा,
“राजकुमारी जी कहाँ से
चुनाव लड़ेंगी?”
जवाब
था, “पाषाणपुर से, शायद.”
कहीं
ओर से आवाज़ आई,
“हमने तो सुना कि वे
निद्रानगर जा रही हैं?”
स्वाधीन
कुमार कुछ सकपकाए और बोले,
“यदि उन्हें निद्रानगर ही
जाना होता तो हम यहाँ क्यों आते?”
इसी
बीच राजकुमारी तेज़-तेज़ कदमों से आगे बढ़ गईं, कुछ
देर बाद मोटर में बैठ कर कुछ लोग एक दिशा में, पाषाणपुर
की दिशा में चले गए. राजकुमारी एक खुले विमान में उड़ गईं. मगर बेताल तो बेताल ही
था, विक्रम को साथ-साथ लिए वह उस नन्हे विमान के साथ ही
उड़ता रहा और जब विमान नीचे उतरा तो दोनों ने देखा कि वे पाषाणपुर नहीं, अपितु निद्रानगर पहुँचे हैं.
विक्रम
को यह अच्छा नहीं लगा. उसने सोचा कि स्वर्णलता प्रजा से, कार्यकर्ताओं से झूठ बोल रही है. उसने बेताल से पूछा
कि स्वर्णलता निद्रानगर क्यों आई हैं,
जबकि लोगों को यह बताया
गया है कि वह पाषाणपुर से चुनाव में खड़ी होंगी.”
बेताल
हँस पड़ा, “अमाँ,
विक्रम स्वर्णलता को
सबसे बड़ा ख़तरा है अपने विरोधी से. मगर उससे भी ज़्यादा ख़तरा है उन्हें अपनी मूढ़ता
से. उन्होंने जनता के लिए कुछ किया तो नहीं है, उनकी
भाषा, उनके रीति-रिवाज, उनके
दुख-दर्द – कुछ भी तो नहीं जानती वह. जबकि उनकी विरोधी है होनहार, कुशल महिलाएँ. यदि वह पाषाणपुर से चुनाव में उतरती तो
उसका सामना करतीं दीन-दुखियों की, अबलाओं की सखी स्नेह प्रभा.”
“और
यहाँ निद्रानगर में उनके ख़िलाफ़ कौन खड़ा होगा?”
“स्वर्णलता
ने पाषाणपुर का नाम झूठमूठ इसलिए लिया था राजा जी, कि
किसी को निद्रानगर की भनक तक न मिले और विरोधी पक्ष सोया हुआ ही रहे तथा उसके
विरोध में अपना कोई उम्मीदवार खड़ा न कर पाए. तब चुनाव जीतना उसके लिए आसान होगा.”
“तो
अब, स्वर्णलता की जीत निश्चित ही समझो!” राजा ने फ़िकरा
कसा.
“कहाँ
की जीत राजा जी,
देखो, ज़रा स्वर्णलता की विरोधी उम्मीदवार के दर्शन तो कर
लो!”
विक्रम
ने देखा, गौरवर्ण महिला, शालीन
गरिमामय व्यक्तित्व,
बड़ी-बड़ी आँखों से
विद्वत्ता झलक रही थी,
माथे पर बड़ी सी बिन्दी, माँग में सिंदूर, चेहरे
पर मुस्कान, अपनत्व बिखरा पड़ रहा था उस व्यक्तित्व से.
बेताल
ने बताया, “ विक्रम,
ये सुमेधा देवी हैं. नाम
के समान ही मेधावी,
मृदु एवम् मितभाषिणी, बड़ी होनहार हैं स्वर्णलता की प्रतिद्वन्द्वी.”
“मगर, बेताल,
ये भी तो वहीं से आई हैं
न जहाँ से स्वर्णलता आई है. इन्हें कैसे पता चला स्वर्णलता की निद्रानगर की यात्रा
का?”
“यही
तो कमाल है. स्वर्णलता एवम् स्वाधीन कुमार स्वयम् को बड़ा चतुर समझते हैं. नाटक तो
उन्होंने ख़ूब किया सुमेधा देवी के दल की दिशाभूल करने का. मगर वे लोग सोए थोड़े ही
हैं. टक्कर तो काँटे की रहेगी. उन्हें जैसे ही निद्रानगर वाली बात का ज्ञान हुआ, उन्होंने फ़ौरन सुमेधा देवी को वहाँ भेज दिया.”
“मगर
वहाँ की जनता शायद स्वर्णलता को बहुत चाहती है तभी तो देखो इतनी घनघोर बारिश में
भी चीख़-चीख़ कर कह रही है,
“हम तुम्हारे साथ हैं.”
“अरे, उस चीख़ने पे मत जाओ. बारिश में एक घण्टा चिल्लाने के
लिए उन्हें काफ़ी धन दिया गया है.”
“मतलब, उन्हें पहले से ही बुलाया गया था? मतलब,
कुछ लोगों को, मतलब,
स्वाधीन कुमार को
भली-भांति मालूम था कि उन्हें कहाँ जाना है! फिर वे झूठ क्यों बोले?”
“झूठ
तो राजनीति का अभिन्न अंग है,
राजाजी! असल में वे
विरोधियों को धोखे में रखना चाह रहे थे, अपनी
ही चाल पर ख़ुश हो रहे थे,
मगर सुमेधा देवी इतनी
तत्परता से वहाँ पहुँच जाएँगी इसका तो उन्हें सपने में भी ख़याल नहीं आया होगा. तभी
तो, देखो न,
स्वर्णलता का मुखमंडल कितना
चिंताग्रस्त,
तनावग्रस्त प्रतीत हो रहा
है. तस्वीर उतारने वाले उन्हें लगातार कह रहे हैं, कृपया थोड़ा
मुस्कुराइए, मगर मुस्कान है कि चेहरे पर आ ही नहीं रही.”
“देखो, देखो बेताल, मुस्कुरा
दी स्वर्णलता!”
इतने
में स्वाधीन कुमार बोले,
“अब राजकुमारी जी हमेशा मुस्कुराती
रहेंगी.”
विक्रम
की हैरानी का कोई ठिकाना न था. स्वर्णलता के आचरण पर उसे क्षोभ हो रहा था. वह उसकी
कथनी और करनी के अंतर को पचा नहीं पा रहा था. कुछ माह पूर्व तो उसे राजनीति से घृणा
थी, फिर वह राजनीति में आई, तो अपने
ही स्वार्थ की ख़ातिर. दल में सर्वोच्च पद हथिया बैठी.
कोई
उसके सम्मुख शीश उठाकर बात करे,
दो-टूक बात करे तो कोप भवन
में चली जाती है,
अब वह सर्वेसर्वा बन जाना
चाहती है.
बेताल
विक्रम की मनःस्थिति को भाँपते हुए बोला, “ज़्यादा
न सोचो, राजा जी. कुछ ही दिनों में चुनाव परिणाम आ जाएँगे. तब स्वर्णलता
को स्वाधीन कुमार के कहने से मुस्कुराना नहीं पड़ेगा.”
“कहीं
तुम यह तो नहीं कहना चाहते,
बेताल, कि इसके बाद उनकी हँसी लुप्त हो जाएगी?”
विक्रम
से रहा न गया.
“मालूम
नहीं...” बेताल का जवाब था.
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