Wednesday, 25 July 2018

पूछे विक्रम, बोले बेताल - 03




अस्ताचल साम्राज्य

अफ़लातून


“बेताल, तुमने बताया, कि अधिकांश भारतीय युवक नौकरी करने के लिए कुबेरपुर जाते हैं, या फिर अस्ताचल साम्राज्य. कुबेरपुर के बारे में तो तुमने मुझे बताया था, अब कुछ बात अस्ताचल साम्राज्य की भी हो जाए.”

“ज़रूर होगी, राजाजी! सात समुन्दर पार एक नदी के किनारे पर बसी है अस्ताचल साम्राज्य की राजधानी. एक ज़माना था, जब अस्ताचल साम्राज्य में सूर्य कभी अस्त ही नहीं होता था.”

“मतलब?” राजा विक्रम ने विस्मय से पूछा.

“मतलब यह कि अस्ताचल साम्राज्य के आधीन पूर्व-पश्चिम दिशाओं के इतने देश थे कि सूर्य देवता की प्रदक्षिणा करती वसुंधरा का जो भी पार्श्व सूर्य देवता का नमन करता, वहीं अस्ताचल साम्राज्य का अधीनस्थ देश होता.”

“अब क्या स्थिति है?” विक्रम ने फिर पूछा.

इस बार बेताल ने गंभीरतापूर्वक कहा, “सुनो, विक्रम, तुम्हें यह बात भली-भांति मालूम है कि समय-चक्र घूमता ही रहता है, अर्थात् समय कभी एक-सा रह ही नहीं सकता. जिस स्थान पर दिन निकलता है, वहीं रात को भी आना ही है, और रात ख़त्म होते ही दिन भी अवश्य निकलेगा. तो अस्ताचल साम्राज्य में समझ लो कि सूर्यास्त हो चुका है. उसके अधीनस्थ सभी देश धीरे-धीरे स्वतंत्र हो गए और अब अस्ताचल पुराने, ध्वस्त खंडहर की भाँति खड़ा है.”

“भारत पर भी क्या अस्ताचल साम्राज्य ने अधिकार किया था?”

“हाँ, दुर्भाग्यवश, ऐसा ही हुआ था. वे आये थे व्यापार करने, मगर अपनी धूर्तता से स्वामी बन बैठे. उस समय भारत में व्याप्त फूट का भी इसमें बड़ा योगदान था. भारतवासियों को उन्होंने खूब सताया था. यहाँ की धन-दौलत अपने साथ ले गए. अंत में अनेक वर्षों के लम्बे संघर्ष के पश्चात् भारत ने स्वाधीनता प्राप्त कर ली.”

“अस्ताचल साम्राज्य का सम्राट कौन है?”

“इस समय वहाँ महारानी है. सम्राट नहीं हैं. महारानी के पति सम्राट न होते हुए भी राजकाज में काफ़ी दखल देते हैं. अनेक समारोहों में जाते हैं और जो भी मन में आये, कह देते हैं. लोगों का उपहास करना उन्हें बहुत अच्छा लगता है. अस्ताचल साम्राज्य की तुलना में अन्य देशों को हीन समझना उनकी आदत है.”

“कोई उदाहरण?”

“हाँ, हाँ! अभी कुछ ही दिन पूर्व वे एक प्रदर्शनी देखने गए. ज़ाहिर है, प्रदर्शन की सभी वस्तुएँ उनकी ही प्रजा ने बनाई थीं. एक स्थान पर किसी गुड़िया की पोषाक के धागे लटकते दिखाई दिए, तो महारानी के पतिदेव ने कहा : “यह शायद ***देश से बनकर आई है!” और हँसने लगे. जब ***के नागरिकों तक यह बात पहुँची तो वे बड़े नाराज़ हुए और महारानी के पतिदेव का विरोध करने लगे. अब तो पतिदेव सकपका गए. उनके पास कोई ताकत या अधिकार तो थे नहीं, वे तो बस महारानी के आभामंडल में ही जुगनू की भाँति विचरते रहते थे. अतः उन्होंने क्षमायाचना करने में ही अपनी भलाई समझी और यह कहकर बात रफ़ा-दफ़ा कर दी कि वे तो बस मज़ाक कर रहे थे.”

“अब कहो, राजा, मिल गया न प्रमाण?”

“हाँ, प्रमाण भी मिल गया और साथ ही यह भी पता चल गया कि अस्ताचल साम्राज्य में कार्य कर रहे विदेशी नागरिकों पर क्या गुज़रती होगी. जहाँ शासनाधिपति ही उन्हें फूहड़, उपहास का पात्र समझे, वहाँ आम व्यक्ति उनके साथ कैसा व्यवहार करता होगा? कभी-कभी तो मैं सोच में पड़ जाता हूँ कि ***देश के नागरिकों से वहाँ कार्य भी किस प्रकार का लिया जाता होगा...”
“विदेशी नागरिक कोई भी कार्य कर लेते हैं: वे राजमार्गों को बुहारते हैं, होटलों में बर्तन साफ़ करते हैं, धोबी का, दर्जी का, सेवक का, शिशु-संगोपन का...कोई भी कार्य कर लेते हैं. हाँ, बुद्धिमान व्यक्तियों की योग्यता का भी यहाँ दोहन किया जाता है, मगर फिर भी रंग भेद, वर्ण भेद के कारण उन्हें अनेक बार अपमानास्पद हादसों से दो-दो हाथ भी करना पड़ता है.”

“हे भगवान! यदि जन्मभूमि में ही रहकर ये महानुभाव अपने परिश्रम, कौशल और ज्ञान की आहुति देते, तो वह निश्चय ही स्वर्ग समान हो जाती. अच्छा यह बताओ कि अस्ताचल महारानी की कितनी संतानें हैं? पुत्र-पौत्र इत्यादि कैसे हैं, क्या करते हैं?”

“राजा, तुम तो सभी कुछ जानना चाहते हो, मगर मैं सब कुछ नहीं बताऊँगा, कुछ ख़ास-ख़ास बातें ही बताऊँगा. सारे भेद खोलना तो मेरी फ़ितरत ही नहीं है.”

“अच्छा भाई, जैसा चाहो, जितना चाहो, उतना ही बताना.”

“महारानी के बड़े पुत्र, जो भावी सम्राट हैं, उनकी दो शादियाँ हुई हैं. उनकी पहली पत्नी आखेटिका एक दुर्घटना में चल बसीं.”

“दुर्घटना में? कहाँ, कब, कैसे?”

“राजा जी, तुम भी बड़े चतुर हो, पूरी बात जानकर ही दम लोगे! तो सुनो, राजकुमारी आखेटिका अनुपम सुन्दरी थी, प्रजा के प्रति, दीन-द्खियों के प्रति प्रेम उसके दिल में उमड़ा पड़ता था. आखेटिका राजघराने से नहीं थी, परंतु जब भावी सम्राट ने उससे विवाह करने में रुचि दिखाई, तो आखेटिका के पिता को सामन्त का ऊँचा ओहदा देकर भावी सम्राट के साथ उसका विवाह कर दिया गया. आँखों में सतरंगी सपने सजोये आखेटिका ने राजमहल में प्रवेश किया, मगर शीघ्र ही उसने पाया कि पति का किसी अन्य विवाहित महिला से संबंध है. दिल टूट गया आखेटिका का. दो राजकुमारों को जन्म देने के बाद उसने उनका लालन-पालन किया और जब वे कुछ बड़े हुए तो उसने समाज कल्याण के कार्यों में रुचि लेना आरंभ कर दिया. राजमाता को पुत्रवधू का इस तरह घूमना-फिरना, आम लोगों से मिलना-जुलना पसंद नहीं था. उन्होंने उसके साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया. राजपुत्रों के समझदार होते ही, जब आखेटिका ने महसूस किया कि उसके पति विवाह-बाह्य संबंध को नहीं छोड़ेंगे, तो उसने पृथक रहने का निश्चय कर लिया. कुछ समय पश्चात् विवाह-विच्छेद भी हो गया.”

“क्या भावी सम्राट ने अपनी प्रेमिका से विवाह किया?”

“नहीं, विक्रम उस राजघराने में उस समय इसकी अनुमति नहीं थी, उन्हें काफ़ी सालों तक रुकना पड़ा...अनेक उलझनों भरे हैं वहाँ के रीति-रिवाज.”

“आखेटिका का फिर क्या हुआ?” विक्रम की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी.

“आखेटिका की त्रासदी ये थी, कि वह बड़ी भावुक थी, उन्मुक्त थी. पति से संबंध-विच्छेद होने के बाद उसने कहीं सहारा ढूँढ़ना चाहा. एक जगह आशा की किरण भी दिखाई दी और उसने एक विदेशी, परधर्मी युवक से विवाह करने का निर्णय ले लिया. सम्राज्ञी राजमाता बड़ी अप्रसन्न थीं. राजप्रासाद में प्रति सप्ताह होने वाले प्रार्थना समारोह के पश्चात् प्रभु से सभी सदस्यों के लिए आशीर्वाद की प्रार्थना की जाती है. उस सप्ताह राजघराने के सदस्यों की सूची में से आखेटिका का नाम निकाल दिया गया.
कुछ ही सप्ताह बाद किसी अन्य देश में अपने भावी पति के साथ यात्रा कर रही आखेटिका का वाहन दुर्घटनाग्रस्त हो गया और उसकी इहलीला समाप्त हो गई.”

“हे ईश्वर! राजमाता को ऐसा न करना चाहिए था...” राजा के मुख से निकला.

“कहीं तुम यह तो नहीं कहना चाहते हो, कि आखेटिका की मृत्यु में राजमाता का हाथ था?”

“मुझे संदेह है. मगर एक बात मेरे मन में रह-रहकर आ रही है, कि इतनी भली महिला को यूँ सताना अच्छा नहीं है. राजघराना अगर अपनी पुत्रवधू के साथ इस प्रकार का व्यवहार करता है, तो अस्ताचल से सभी अच्छाइयों के अस्त होने में देर नहीं लगेगी. तुम्हारा क्या ख़याल है, बेताल?”
“मालूम नहीं...”

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Saturday, 21 July 2018

पूछे विक्रम, बोले बेताल - 02



विदेश जाने की होड़

अफ़लातून


राजा विक्रम को सोच में डूबा देखकर बेताल ने पूछ लिया, “किस चिंता में बैठे हो, राजा जी?”

“बेताल भाई, मैं देख रहा हूँ कि लोगों के चेहरों पर सदा चिंता के बादल ही होते हैं. किस बात की चिंता है भारतवासियों को?”

“एक बात हो तो कहूँ! घर की चिंता, बाहर की चिंता, अपनी नौकरी की चिंता, बेटियों के ब्याह की, बेटे की नौकरी की, उसकी शिक्षा की, उन्हें विदेश भेजने के जुगाड़ की...!”

“रुको, रुको, बेताल, यह विदेश भेजने वाली बात तुमने क्या कही?”

“विक्रम भाई, विदेशों में जाकर नौकरी करने की, ख़ूब सारा धन कमाकर वहीं बस जाने की, वहाँ की नागरिकता ग्रहण करने की होड़ पिछले चालीस-पचास वर्षों में बड़ी भयंकर हो गई है. लोग अपने बेटों या बेटियों को पहले तो विदेशों में उच्च अध्ययन के लिए भेजते हैं, फिर वे बच्चे पढ़ाई का खर्च उठाने की ख़ातिर वहीं छोटी-मोटी नौकरी कर लेते हैं और अध्ययन पूरा होने पर वहीं बस जाते हैं, शादी-ब्याह कर लेते हैं, कभी-कभार भारत आते हैं और यहाँ की मिट्टी से, धूल से, हवा से, पानी से, भोजन से दूर रहने का प्रयत्न करते हैं, जिस मिट्टी में पले-बढ़े उसे दुत्कार कर वापस लौट जाते हैं और फिर कभी वापस नहीं आते. इस तरह भारतीय परिवारों का एक अंश विदेशी बनता जा रहा है, मातृभूमि को ठुकराकर पराई गोद में चैन ढूँढ़ता है.”

“उन्हें क्या चैन मिल पाता है? मैं सोचता हूँ, कि अपने घर जैसा घर और अपने देश जैसा देश कहीं नहीं है.”

“यह तो तुम सोचते हो, विक्रम! मगर अनेक नौजवान ऐसा नहीं सोचते, यदि थोड़े-बहुत सोचते भी हैं, तो वापस लौटना उनके लिए संभव नहीं होता.”

“ऐसा क्यों, बेताल? कुछ विस्तार से कहो...”

“सुनो, मैं तुम्हें आशुतोष और विभावरी की कहानी सुनाता हूँ....

भारत के दक्षिण-पश्चिमी सागर तट पर बसा है आनन्द पट्टनम. आनन्द पट्टनम में एक मध्यमवर्गीय परिवार में जन्म हुआ आशुतोष का. पिता शासकीय अधिकारी और माता शिक्षिका थीं. साम्पत्तिक स्थिति अच्छी थी. आशुतोष एकमात्र संतान होने के साथ-साथ होशियार और अध्ययनशील भी था. उच्च शिक्षा प्राप्त करते-करते उसे अपनी सहपाठिनी विभावरी भा गई. दोनों परिवार तोल-मोल के थे, सो आशुतोष का विभावरी के साथ ब्याह हो गया. हर महत्वाकांक्षी युवक की भांति आशुतोष भी विदेश में नौकरी पाने का प्रयत्न करने लगा.”

“उसे नौकरी मिली? कहाँ?”

“मिलती क्यों नहीं? भारतीय युवक वास्तव में बड़े विद्वान और मेहनती होते हैं. विदेशी लोगों की अपेक्षा भारतीय लोग निश्चय ही अधिक कुशल होते हैं.”

“फिर तो वे बड़े-बड़े ओहदों पर नौकरी पाते होंगे.”

“कैसे पायेंगे? कुछ भी कहो, जाते तो वे याचक बनकर, सेवक बनकर ही हैं न! चाहे कितने ही विद्वान क्यों न हों, वे हमेशा कनिष्ठ स्थानोंपर ही रखे जाते हैं. यदि ऐसा न किया गया, तो धीरे-धीरे सभी स्थानों पर भारतीयों का वर्चस्व हो जाएगा, विदेशी इस दृष्टि से बड़े सतर्क रहते हैं. योग्य से योग्य विद्वान की सेवाएँ मिट्टी के मोल खरीद कर उन्हें अपमानास्पद जीवन जीने के लिए मजबूर करते हैं. ख़ैर तुम कहानी सुनो!”

“तो आशुतोष और विभावरी चले गए कुबेरपुर?”

“हाँ, अधिकांश भारतीय नौकरी एवम् धन-प्राप्ति के लिए कुबेरपुर जाना ही पसंद करते हैं. यदि वहाँ संभव न हुआ तो कंठाल साम्राज्य या अस्ताचल साम्राज्य की ओर रुख करते हैं. तो, कुबेरपुर में आशुतोष और विभावरी दोनों को काम मिल गया. काफ़ी धन कमा लेते, कुछ माता-पिता को भेजते, कुछ जमा कर लेते. धीरे-धीरे उन्होंने एक विशाल आवास भी ख़रीद लिया.”
“विशाल क्यों? रहते कितने लोग थे वहाँ?”

“बस वे दोनों ही. और वे भी, रहते कहाँ थे, सुबह उठकर दोनों अपने-अपने कार्य पर चल पड़ते, रात को थके मांदे लौटते, दिन भर के अनुभवों को सुनाते, मन में कचोट लिए कि उनसे कहीं कम कुशल व्यक्ति की पदोन्नति होती जाती है, मगर उनकी पदोन्नति काफ़ी धीरे-धीरे हो रही है. धीरे-धीरे उन्हें इस सौतेले व्यवहार की आदत पड़ गई, और वे इसे ही अपनी नियति मानकर बैठे रहे!”

“कभी माता-पिता की याद नहीं आती थी? मित्रों, संबंधियों, परिजनों को वे क्या बिल्कुल भूल गए?”
“कौन किसको याद रखता है,राजाजी! आँखों से ओझल होने पर दिल से भी धीरे-धीरे निकलना ही पड़ता है.”

“और माता-पिता कैसे रहे इतने वर्षों तक अपनी संतान के बगैर?”

“माता-पिता को पहले तो बहुत अच्छा लगा कि बेटा विदेश में है, खूब धन भेज रहा है, उन्होंने भी ऐशो-आराम के कई सारे साधन जुटा लिए. मगर एक दिन, वृद्धावस्था के निकट पहुँचते-पहुँचते, उन्हें इस सत्य को, कटु सत्य को स्वीकार करना ही पड़ा वे बेटे को हमेशा के लिए खो चुके हैं.”
“आशुतोष और विभावरी ने भी कभी वापस लौटने का प्रयत्न नहीं किया?”

“दो-एक बार किया था. वे अपने दो सुंदर बालकों के साथ स्वदेश आए थे. कुछ दिन रुकने पर ही उन्हें विश्वास हो गया कि वे यहाँ नहीं रह सकते. दोनों बालक बीमार हो गए, आशुतोष ने पाया कि जितना धन वह कुबेरपुर में कमा रहा है, उसका आठवाँ भाग भी भारत में नहीं कमा सकेगा.

उसने वहीं, कुबेरपुर में ही, बस जाना, वहीं दूसरे दर्जे की ज़िंदगी जीना बेहतर समझा. भारत में भी उसे अब कोई भारतीय तो कहता नहीं था, वह तो आप्रवासी भारतीयथा. तो इस तरह आशुतोष और विभावरी अपने माता-पिता को वृद्धावस्था में अकेला छोड़कर कुबेरपुर वापस चले गए.”

“माता-पिता का क्या हुआ?” राजा ने चिंतित होकर पूछा.

“होना क्या था! वे दोनों जैसे दशरथ के पुत्र-वियोग की तस्वीर बन गए थे. बेटा! बेटा! कहते हुए ही उन्होंने प्राण त्याग दिए. बेटे ने सोचा कि सारे संस्कार तो मित्रों, संबंधियों ने कर ही दिए होंगे, अब जाकर क्या करूँगा, अतः वह माता-पिता की मृत्यु पर भी स्वदेश नहीं आया.”

“यह तो बड़ी करुण कथा सुनाई तुमने बेताल! मगर मैं तो आशुतोष-विभावरी का भविष्य भी सुखकर नहीं देख रहा हूँ. विदेशी सभ्यता में पले उनके दोनों बेटे, अपनी विदेशी पत्नियों के साथ क्या आशुतोष-विभावरी का ध्यान रखेंगे? उनका अंत कैसे होगा? क्या वे इस संसार से समाधान के बीच, अकेलेपन और टूटन का अनुभव करते हुए ही बिदा लेंगे, जैसा उनके माता-पिता के साथ हुआ था?”

“मालूम नहीं...”

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Friday, 20 July 2018

पूछे विक्रम, बोले बेताल - 01



कुबेरपुर का राजा

अफ़लातून

बात पुरानी है. कितनी पुरानी कहना कठिन है. उसका ज़िक्र करते हुए “एक समय की बात है...” से ही शुरू करना पड़ता है.

तो, एक समय की बात है कि उज्जयिनी नगर में राजा विक्रम राज्य किया करते थे. (यह तो आपको मालूम ही है!) राजा विक्रम ने किसी तपस्वी को किसी पेड़ से लटकता हुआ मृत शरीर लाकर देने का वादा किया था. उस शरीर में बेताल का वास था. हर बार राजा विक्रम उस शरीर को अपने कंधे पर डालकर तपस्वी की ओर चल पड़ते. बेताल उन्हें अपनी कहानी सुनाता और कहानी से संबंधित प्रश्न पूछता – साथ ही धमकी भी देता कि यदि जानते हुए भी राजा ने उन प्रश्नों के उत्तर नहीं दिये तो उसके सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंग़े. बेचारा राजा जैसे ही उत्तर देता, बेताल मृत शरीर समेत दुबारा पेड़ से लटक जाता. इस तरह कई रातों तक चलता रहा...जब तक कि बेताल पचीसीख़त्म न हो गई.

तो फिर? यह बात इस समय कहने का क्या प्रयोजन?

हुआ यूँ कि कहानियों का राजा विक्रम कब परलोक सिधारा, यह तो हमें ज्ञात नहीं, शायद वह अमर था, मगर बूढ़ा तो उसको होना ही था, क्योंकि वह अपने बचपन में ज़रूर बच्चा ही रहा होगा न! मगर बेताल महाशय तो अलौकिक शक्तियों के स्वामी थे (जैसे कि किसी भी शरीर में प्रवेश कर जाना, कहीं भी चले जाना, कुछ भी कर बैठनायाने कि वह त्रिकालदर्शी, त्रिभुवन संचारी थे, ऐसा मान सकते हैं!)

तो, वृद्धावस्था को प्राप्त हुए राजा विक्रम एक दिन जंगल में घूम रहे थे (पुरानी आदत गई नहीं थी), अचानक कहीं से खिलखिलाकर हँसने की आवाज़ आई. ऊपर देखा तो नज़र आया बेताल! दोनों ने एक दूसरे को पहचान लिया. तपाक से मिले. बेताल बोला:
“भई, राजा जी, पुराने दिन बड़े याद आते हैं, वो तुम्हारी पीठ पर सवार होना, किस्से-कहानियों में रातों का कट जाना, बार-बार तुम्हारे हाथों से फिसल कर पेड़ पर लटक जाना...हो जाये, दुबारा!”

“अरे भई, बेताल, अब मुझ में वह बात कहाँ! बूढ़ा हो गया हूँ! अपना ही बोझ नहीं संभलता, तुम्हें कहाँ से उठा पाऊँगा...”

“ओह...” बेताल बोला. “ख़ैर चलो, बैठे-बैठे ही बतियायेँगे! रातें आराम से कट जाएँगी!”

“ना! ना! रातों को जागने का तो अब सवाल ही नहीं! दिन में भी लेटे रहने का मन करता है! नज़र भी कमज़ोर पड़ गई है, तुम्हें ही मुश्किल से पहचान पाया.”

तो तुम अब वोनहीं रहे! ख़ैर, माँ कसम, पुरानी दोस्ती का वादा, मैं तुम्हें दुनिया दिखाऊँगा!
अख़बार तो तुम पढ़ते नहीं होगे, टी.वी.भी नहीं देख पाते होगे, मैं तुम्हें सुनाऊँगा, कि दुनिया में कहाँ क्या हो रहा है, कहीं कोई शक हो तो सवाल पूछते रहना, जवाब भी मैं ही दूँगा.”

“यह ठीक है! सच, दोस्त, मुझे बहुत अकेलापन महसूस हो रहा है आजकल! ज़माने से कब का पिछड़ गया हूँ, कई बातें पल्ले नहीं पड़ती मेरे, तुम्हारा बहुत एहसानमन्द रहूँगा, अगर तुम सीधे-साधे शब्दों में दुनिया के हालचाल सुनाते रहो!”

“तो सुनो:
पृथ्वी पर कुबेरपुर नामक एक अति सम्पन्न नगर है, अति आधुनिक भी है यह कुबेरपुर. वहाँ के निवासी गोरे चिट्टे; मौज मस्ती में समय बिताते, दिल बहलाव के लिए किसी पर भी गोली चला देते. तमंचे वाला खेल वहाँ बहुत लोकप्रिय है. बच्चे बड़ों पर, बड़े बड़ों पर, बच्चे बच्चों पर, अपने परायों पर कभी भी, यूँ ही तमंचा चला बैठते हैं. उनके तमंचे भी अलग-अलग प्रकार के होते हैं, उनसे छोड़ी जाने वाली गोलियाँ भी अलग-अलग किस्म की होती हैं. कभी उन्हें पिस्तौल कहते हैं, कभी मिसाइल, कभी प्रक्षेपास्त्र.

तो, इस कुबेरपुर का राजा बड़ा बांका जवान था, सुदर्शन, स्वभाव से रसिया! राजा होने के कारण हर चीज़, ज़ाहिर है, उसी की थी. तो, इस राजा का दिल आ गया एक बाला पर! वह समझी – रानी बनूँगी. मगर राजा भी था महाचतुर! ऐसी कितनी ही बालाओं से रास रचा चुका था. ऊपर से, महारानी के भय से वह विवाह भी भला कितनी बालाओं से करता! मगर वह बाला भी थी बलाकी साहसी! उसने अपनी सखियों की मार्फ़त, मित्रों की मार्फ़त पूरे कुबेरपुर में राजाजी से अपने संबंधों की बात ज़ाहिर कर दी. राजा को बड़ी शर्म आई. उसने सोचा, सारी प्रजा मेरा मुँह देखेगी, जो अब दिखाने लायक नहीं रहा! क्यों न मैं प्रजा का ही मुँह फेर दूँ? उसने दूर जाकर अपने सैनिकों समेत कंठाल देश पर बम बरसाने शुरू कर दिए.”

“रुको, यह कंठाल देश कहाँ है?” विक्रम ने पूछ लिया.

“वहीं, जहाँ बहुत सारे ऊँट पाये जाते हैं,” बेताल ने उत्तर देते हुए आगे कहा, “मगर कंठाल देश का राजा भी बड़ा पराक्रमी निकला, वह भी मुँहतोड़ जवाब देता रहा कुबेरपुर का...”

“फिर, कितने समय तक यह युद्ध चला?”

“वह तो बस चल ही रहा है, शायद चलता ही रहेगा, क्योंकि कुबेरपुर ने एक साथ ही कुछ अन्य देशों पर भी आक्रमण कर दिया है न!”

“कारण?”

“पूरी दुनिया पर अपनी हुकूमत चलाना चाहता है, अपनी हथियारों की मंडी में मंदी नहीं आने देना चाहता, निरंतर हथियारों का निर्माण करता जाता है और उन्हें निर्दोष, निरपराध राज्यों पर यूँ ही बरसाता जाता है.”

“यह तो बहुत बुरी बात है! आख़िर इसे रोका कैसे जा सकता है?”

“यही तो फ़िलहाल मालूम नहीं, मगर मुझे पूरा विश्वास है, कि वह एक दिन पछतायेगा, पराजित, लाचार, दुनिया की अदालत में दोषी के कटघरे में खड़ा होगा और दया की याचना करेगा.”
“क्या उसे दया की भीख मिलेगी?”

“मालूम नहीं...”

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पूछे विक्रम, बोले बेताल - 12

12. राजनीति में झूठ अफ़लातून  उस दिन टहलते-टहलते विक्रम और बेताल पहुँच गए सौभाग्य नगर के विमानपत्तन के निकट. देखा कि चारों ओर बड़...