Wednesday, 5 September 2018

पूछे विक्रम, बोले बेताल - 08






8. क्या जानवर बच्चों से बेहतर हैं?


‌‌‌‌‌‌‌-- अफ़लातून

उस दिन जब राजा विक्रम नियत स्थल पर पहुँचा तो बेताल को वहाँ न पाकर कुछ सुस्ताने लगा. कुछ ही क्षणों में चिर-परिचित हँसी की आवाज़ सुनाई दी. विक्रम ने कहा, “बड़ी देर लगा दी मित्र! क्या कहीं घूमने गए थे?”

बेताल बोला, “हाँ, और अब तुम्हें ले जाने आया हूँ. अकेले घूमने में मज़ा नहीं आ रहा था.”

“मगर मैं...” विक्रम ने कहना चाहा मगर बेताल उसे टोकते हुए बोला, “चिंता न करो, राजा जी, मैं तुम्हारे शरीर में प्रविष्ट हो जाता हूँ, आकाश मार्ग से चले चलेंगे, जहाँ रुकना चाहो, बता देना, मैं तुमसे बातें करने लगूँगा.”

दोनों चल पड़े. नीचे पृथ्वी पर नज़रें जमाए वे आकाश मार्ग से चले जा रहे थे. अचानक विक्रम ने कुछ शोकग्रस्त महिलाओं को देखा. उनमें से एक विदुषी के मुख पर शोक की गहरी छाया थी.

राजा ने अनुमान लगाया कि उसके साथ कोई दुर्घटना हुई है. दुखियारों का सहारा विक्रम विचलित हो उठा. राजा के दिल का हाल समझकर बेताल रुक गया. दोनों उन महिलाओं के वार्तालाप को सुनने लगे.

इतने में सामने से एक भद्र पुरुष उन महिलाओं के निकट आए तो विदुषी अपने आँसुओं को रोकते हुए बोली, “छोटा चल बसा!”

भद्र पुरुष ने आसमान की ओर हाथ उठाते हुए छोटेकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना की.

राजा अपनी उत्सुकता को रोक न सका. पूछने लगा बेताल से, “क्या छोटा रोगग्रस्त था?”

बेताल ने जवाब दिया, “हाँ, लगभग तीन सप्ताह से बीमार था.”

“ईश्वर उसकी आत्मा को शांति दे! इन देवीजी की कितनी संतानें हैं?”

“बस एक ही पुत्र है, विद्वान, आज्ञाकारी और स्वस्थ्य भी है.”

“फिर, ये तो छोटेकी बात कर रही थीं?”

“तुम समझे कि छोटाइनका बेटा था? देखो राजा जी, आजकल माँ-बाप बच्चों से उतना प्यार नहीं करते, जितना पालतू जानवरों से करते हैं.”

“याने...?”

“हाँ, ‘छोटेसे उनका तात्पर्य था उस नन्ही सी कट्टो गिलहरी से जिसे उन्होंने अपने घर में पाल रखा था.”

“गिलहरी के निधन पर इतना दुख!”

“देख लो!”

आगे चले तो एक महिला को बाल बिखेरे, सिर झुकाए, हाथ बाँधे आँसू बहाते देखकर रुक गए. महिला खड़ी थी एक समाधि के सामने.

विक्रम बोला, “शायद किसी निकटतम व्यक्ति की समाधि है.”

“हा, हा, हा, खा गए न धोखा विक्रम भाई! यह समाधि है इन देवीजी के श्वान की!”

“घर में और कौन-कौन है?”

“अपना कहने को बस वही श्वान था, वह भी बूढ़ा होकर मर गया.”

विक्रम ने सोचते हुए कहा, “शायद अब भारतीय महिलाओं के मन में प्रेम का सागर हिलोरें ले रहा है. जब वे अपने पालतू प्राणियों से इतना स्नेह करती हैं, तो अपने घर के सदस्यों से कितना प्रेम करती होंगी!”

बेताल बोला, “राजा जी, इतनी जल्दी किसी निष्कर्ष पर न पहुँचना. एक-दो नज़ारे और देख लेते हैं. तुमने मृत प्राणियों के प्रति उनकी भावनाओं को तो देख लिया, अब जीवित प्राणियों के साथ उनका व्यवहार भी देख लो.”

विक्रम ने कहा, “चलो!”

उन्हें अधिक दूर नहीं जाना पड़ा. निकट ही एक जमघट देखा...कुछ पिंजरे, पिंजरों में मर्कट...एक इमारत से पिंजरों को बाहर धकेलते हुए कुछ व्यक्ति, उनको निर्देश देती एक महिला.

विक्रम ने देखा बेताल की ओर! बेताल ने बताना शुरू किया, “यह एक प्रयोगशाला का भवन है. यहाँ विभिन्न रोगों से जूझने की औषधियाँ बनाई जाती हैं. उनके प्रयोग पहले किए जाते हैं वानरों पर, चूहों पर, श्वानों पर, और तभी मनुष्यों को ये औषधियाँ दी जाती हैं.”

“तो फिर, समस्या कया है?” विक्रम ने पूछ लिया.

इन महिलाओं का कहना है, कि जिन पशुओं पर प्रयोग किए जा रहे हैं, उनकी देखभाल भली-भाँति नहीं की जा रही है. उनके रहने के पिंजरे छोटे-छोटे हैं, उन्हें समुचित सुविधाएँ प्रदान नहीं की जा रही हैं. अतः यह महिला सभी जानवरों को दूर जंगल में ले जाकर छोड़ने का आदेश दे रही है. कहो, क्या कहते हो?”

विक्रम ने कुछ बोलने के लिए मुँह खोला ही था कि उसकी आँखों के सामने एक किशोर का चेहरा तैर गया. बालक अकेला, उदास, रसोईघर में खड़ा खाना बना रहा था. राजा को आश्चर्य हुआ, नन्हा-सा बालक, अकेला, खाना किसके लिए बना रहा है?

कुछ ध्यान से देखा तो पाया कि बालक के पिता मुँह में सिगरेट दबाए तैश में किसी से झगड़ रहे थे, माँ, सजी-सँवरी, चमकती-दमकती-इठलाती कुछ लिख रही थी.

बेताल हाज़िर था इस सबका मतलब समझाने के लिए, “राजा जी, इस बालक की माँ बड़ी अफ़सर है, पिता को झगड़ा करने से फुर्सत नहीं, बालक अपने बचपन को भुलाकर सभी के लिए कुछ खाना बना रहा है. यदि खाने के समय तक कुछ बन न पाया तो उसे मार पड़ेगी पिता से, और गालियाँ सुनेगा महिमा-मंडित माँ से! पढ़ाई-लिखाई भी करनी पड़ती है, माँ की इज़्ज़त का सवाल जो है!”

विक्रम गहरी सोच में डूब गया. बेताल ने ही चुप्पी को तोड़ा, “अब बोलो, राजा विक्रम, तुम इन महिलाओं के प्रेमपूर्ण व्यवहार की तारीफ़ कर रहे थे. अब कहो, मैं सुनूँगा.”

“क्या कहूँ, बेताल! जानवरों को सुख-सुविधा देने वाली, उनकी मृत्यु पर शोक-विह्वल होने वाली ये महिलाएँ अपनी ही संतान के प्रति इतनी निष्ठुर कैसे हो सकती हैं?”

“निष्ठुर होती हैं, यह तो तुमने देख लिया. शायद यह पशु-प्रेम प्रसिद्धि पाने के लिए ही है. वरना अपने पुत्र को कौन सी माँ दुख देगी?”

“रुको, बेताल, कहीं वह उसका सौतेला बेटा तो नहीं?”

“नहीं, राजा, बिल्कुल सगा है वह बेटा. मैं तो सोचता हूँ, कि उस महिला को शादी-ब्याह का बंधन रास नहीं आया. बच्चा शायद उसके पैरों की जंज़ीर बन गया है!”

“हो सकता है, मगर मैंने तो ऐसी बात अपने राज्य में कभी देखी-सुनी नहीं. इस नगर को देखकर तो यूँ प्रतीत होता है कि वानरों-श्वानों-मूषकों का जीवन मानव-जीवन की अपेक्षा अधिक सुखकर है. कहीं यह बालक भी यही तो नहीं सोच रहा है, कि काश मैं भी वानर होता या श्वान होता, तब तो माँ के स्नेह की छाया मुझे मिलती?”

“मालूम नहीं...” बेताल का जवाब था.

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Monday, 27 August 2018

पूछे विक्रम, बोले बेताल - 07



जिओ हज़ारों साल

अफ़लातून


विक्रम और बेताल आकाश मार्ग से सैर कर रहे थे. अचानक एक जगह उत्सुकतावश विक्रम ने कुछ रुककर देखा. एक भद्रपुरुष की तस्वीर पर फूलमाला चढ़ाई जा रही थी, दीप प्रज्वलित किया जा रहा था. लोगों ने तालियाँ बजाईं, कुछ लोग व्यास पीठ पर आकर कुछ बोले. विक्रम और बेताल आगे चले.

उस दिन तो यह जोड़ी जहाँ भी गई, ऐसा ही नज़ारा देखने को मिला. विक्रम से रहा न गया, उसने आख़िर पूछ ही लिया, “बेताल, ये लोग ऐसे जमा होकर इन्हीं महापुरुष को फूल मालाएँ क्यों पहना रहे हैं? मुझे तो स्मरण नहीं है कि यह किसी भगवान का चित्र है. कुछ बताओ तो.”

“तुमने सही पहचाना, दोस्त! यह तस्वीर है एक प्रसिद्ध शिक्षक की, या यूँ कहो कि भूतपूर्व राजनीतिज्ञ की जो कभी शिक्षक रह चुके थे. वे बड़े विद्वान, दार्शनिक और सम्माननीय थे. उन्होंने अपने जन्मदिवस को शिक्षक-दिवस के रूप में मनाने की परिपाटी अपने ही जीवन काल में डाल ली. 
तभी से हर वर्ष इसी दिन शिक्षक-दिवस मनाया जाता है.”

“मतलब, होता क्या है इस दिन? शिक्षकों का सम्मान किया जाता है? ‘गुरुर्ब्रह्मा ...कहकर उनकी पूजा की जाती है?”

“ना,ना,ना! बस इन्हीं महापुरुष को हार-फूल पहनाए जाते हैं. सभाओं का आयोजन होता है. शिक्षकों की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए, शिक्षकों से ही ये कहा जाता है कि वे ऐसे बनें...वैसे बनें...ये करें...वो करें...पाठशालाओं में इस दिन विद्यार्थी पूरी पाठशाला चलाते हैं...शिक्षकों को बस देखना होता है कि काम कैसा चल रहा है.”

“राम-राम! ये तो जीते जी ही उन्हें कोने में बिठा देने वाली बात हुई कि तुम्हारे बगैर ही हम सब काम चला सकते हैं.”

“रुको, राजा जी, मुझे पूरी बात तो सुनाने दो.”

“अच्छा कहो!”

“देश की राजधानी में सर्वोत्तम शिक्षक को पुरस्कार दिया जाता है. अन्य अनेक स्थानों पर भी ऐसा ही किया जाता है.”

“देखो बेताल, एक ही शिक्षक प्रतिवर्ष तो पुरस्कार पाएगा नहीं.”

“ठीक कहा तुमने, राजा जी, प्रति वर्ष अलग-अलग शिक्षकों को पुरस्कार दिया जाता है.”

“यानी अगर इस वर्ष सर्वोत्तम होने का पुरस्कार पाएगा, तो अगले वर्ष और उससे अगले वर्ष ’. यानी किसी पाठशाला में यदि दस अध्यापक हैं तो दस वर्षों में हरेक सर्वोत्तम कहलायेगा. फिर दुबारा सर्वोत्तम बनने का सिलसिला अगले दस वर्षों तक जारी रहेगा. मगर यदि कहीं दो, या मानो तीन ही अध्यापक हों, तो हरेक बड़ी जल्दी सर्वोत्तम कहलायेगा, और यदि एक ही अध्यापक हो तो? उसका सम्मान प्रतिवर्ष किया जाएगा. एक बार सर्वोत्तम बनने के बाद क्या उसे कुछ अन्य सुविधाएँ मिलती हैं?”

“कहाँ की सुविधाएँ, राजा जी, जहाँ सभी सर्वोत्तम हों वहाँ तू भी रानी, मैं भी रानी, कौन भरेगा पानी वाली कहावत ही चरितार्थ होगी न!”

“अच्छा, यह तो बताओ कि इन सभाओं का आयोजन करता कौन है?”

“कौन करेगा? जिसका दिवसहो, वही! शिक्षक ही आयोजन करते हैं, शिक्षक ही श्रोता, शिक्षक ही वक्ता!”

“मुख्य अतिथि भी शिक्षक?”

“नहीं, मुख्य अतिथि होता है कोई सरकारी अफ़सर या कोई राजनेता! फूलमाला उसे पहनाई जाती है, शिक्षक बेचारे थके-मांदे, भूखे-प्यासे उसके इंतज़ार में घंटों बैठे रहते हैं.”

“तो फिर इसे शिक्षक-दिवस क्यों कहते हो?”

“इसलिए कि जिन महापुरुष का जन्म दिन मनाया जा रहा है, वे कभी शिक्षक रह चुके थे. मगर, एक बात गौर करने लायक है, यदि वे राजनीति में अत्युच्च पद प्राप्त न करते तो क्या उनका जन्मदिन इस भाँति मनाया जाता? मतलब यह, कि वास्तव में तो सम्मान राजनीतिज्ञ का किया जाता है, कोई-न-कोई बहाना ढूँढ़ लिया जाता है, बस!”

“अच्छा, बेताल भाई, और कौन-कौन से दिवसमनाए जाते हैं?”       

“ ‘बाल-दिवसभी मनाया जाता है एक अन्य राजनेता के जन्ममदिन के रूप में. बेचारे बच्चे कई-कई दिनों तक धूप में कसरत, खेलकूद, नृत्य-नाटक आदि का आयोजन करते हैं, जिससे बाल-दिवस पर उनका प्रदर्शन कर सकें.”

“इतनी धूम-धाम से मनाया जाता है बाल-दिवस?”

“मनाया क्यों नहीं जाएगा? ये महापुरुष अपने वंश के लिए युग पुरुष ही तो थे, वे स्वर्णलता राजकुमारी के वंश के आदिपुरुष थे. तभी अब तक इस दिवस का गौरव कायम है.”

“तो, शिक्षक-दिवस, बाल-दिवस मानो अपने-अपने अस्तित्व का एहसास कराने वालों द्वारा मनाए जाते हैं. मैंने सुना है कि महिला-दिवस भी मनाया जाता है.”

“हाँ, वहाँ भी हर आयोजन महिलाओं द्वारा, महिलाओं के लिए ही किया जाता है. और भी कुछ महत्वपूर्ण दिवस मनाए जाते हैं, जैसे सद्भावना-दिवस, जब देश के सभी व्यक्ति शपथ लेते हैं, कि वे एक दूसरे के साथ सौहार्द्र का व्यवहार करेंगे. शहीद-दिवस, स्वतन्त्रता-दिवस, गणतन्त्र-दिवस आदि भी मनाए जाते हैं.”

“हूँ...तो तुमने महिलाओं के, बच्चों के, शहीदों के नाम तो गिना दिए, मगर क्या पुरुषों का कोई दिवस नहीं मनाया जाता?”

“भारतवर्ष में नहीं. हाँ, एक वेलेन्टाइन-डेमनाया जाता है जब लोग अपने-अपने प्रिय पात्र को बधाइयाँ देते हैं.”

“बेताल, जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ, ये आयोजन उनका मनोबल बढ़ाने के लिए किए जाते हैं जो कमज़ोर हैं, अपनी रक्षा स्वयम् नहीं कर सकते. वे ही अपने अस्तित्व का ज्ञान समाज को करवाने के लिए समय-समय पर ऐसे उत्सव किया करते हैं. वर्ना, घर-परिवार में तो जिसका जन्मदिन मनाया जाता है, उसका सम्मान घर के अन्य सदस्य करते हैं, आशीर्वाद, भेंट इत्यादि भी दूसरे व्यक्ति ही देते हैं. यहाँ तो जिसका दिवस मनाया जा रहा है, वही अपनी निधिमें धन का दान देने की विनती करता है. वास्तव में जिन्हें सम्मान दिया जाना चाहिए, जो समाज के निर्माता हैं, मैं शिक्षकों की बात कर रहा हूँ, जो देश की भावी पीढ़ी का निर्माण करते हैं; बच्चों के बारे में सोच रहा हूँ, जो देश के कर्णधार हैं; महिलाओं के बारे में सोच रहा हूँ, जो शक्तिस्वरूपा है, जन्मदात्री है, माता है, उन्हें आपके इन थोथे सम्मानों की आवश्यकता नहीं है. एक दिन नाममात्र को सम्मानित करने का दिखावा न करते हुए उनकी महत्ता और शक्ति को पहचान कर उन्हें समाज में योग्य स्थान देना होगा. तभी देश का चरित्र एवम् शक्ति बढ़ेगी. शिक्षकों को, बच्चों को और महिलाओं को जियो हज़ारों सालकहने की ज़रूरत नहीं है. गुरू, जो साक्षात् परब्रह्म है; नारी, जिसके निकट ही स्वर्ग का वास है; एवम् बच्चे, जो साक्षात् ईश्वर का ही रूप हैं, उनका मखौल न उड़ाया जाए. सिर्फ एक दिवसउनकी आड़ में औरों को सम्मानित करने के बदले उन्हें चिर सम्मान प्रदान किया जाना चाहिए.”

विक्रम आवेश में बोलता रहा, बेताल उसे चुपचाप देखता रहा. आख़िरकार विक्रम ने ही कहा : “ये तो मेरे मन के भाव थे, बेताल. पुराने ज़माने का हूँ न इसीलिए आदरणीय व्यक्तियों की दशा देखकर आवेश में आ गया. तुम ही बताओ, क्या कभी इस देश में गुरू एवम् माता को फिर से वैसा ही सम्मान प्राप्त हो पाएगा, जैसा प्राचीन काल में होता था?”

“मालूम नहीं, विक्रम...”

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Saturday, 11 August 2018

पूछे विक्रम, बोले बेताल - 06




कवि कठोर
अफ़लातून


बेताल बड़ी देर से विक्रम का इंतज़ार कर रहा था. आज न जाने क्यों विक्रम को बड़ी देर हो गई थी. बेताल ने दिव्य दृष्टि से देखकर जान लिया कि सब कुछ ठीक-ठाक ही था. केवल कुछ उत्तेजित जान पड़ता था विक्रम.

ऐसा ही हुआ. गुस्से से भरा, हाँफ़ता हुआ विक्रम आया और बिना कुछ बोले धम् से बैठ गया. कुछ पल उसकी ओर देखकर बेताल ने मुस्कुराते हुए पूछ ही लिया, “किस बात का बुरा मान गए, राजा जी?”

विक्रम ने कोई जवाब नहीं दिया, वह अभी भी गुस्से से उफ़न ही रहा था.

बेताल ही आगे बोला, “तो, तुम्हें पुलिस का जनता की भीड़ पर लाठियाँ और गोलियाँ बरसाना अच्छा नहीं लगा? प्रजा से सदा प्यार करते रहने से तुम जनता को कष्ट में देखना पसन्द नहीं करते. मगर, विक्रम, तुम्हारा ज़माना और था, आज का ज़माना बहुत बदल चुका है. तब ख़ुशहाली थी, जुर्म काफ़ी कम होते थे, अतः संतरियों की ज़रूरत ही नहीं पड़ती थी. आज जुर्म इतने बढ़ गए हैं, दुर्घटनाएँ, प्राकृतिक एवम् मानव निर्मित आपदाएँ मानो कतार बांधे खड़ी हैं वसुंधरा पर आक्रमण करने के लिए, जनसंख्या इतनी बढ़ गई है, अतः यदि कोई दुर्घटना या आपदा आती है, तो दुर्घटनाग्रस्त व्यक्तियों की एवम् अन्य अप्रभावित जनता की रक्षा के लिए पुलिस एवम् अन्य सुरक्षा कर्मियों को वहाँ जाना ही पड़ता है. भीड़ बेकाबू होकर जानमाल का नुक्सान न करे इसलिए उसे नियन्त्रित करना ही पड़ता है, इस प्रक्रिया में पुलिस को कभी-कभी कठोर भी होना पड़ता है. तुम्हें क्यों इतना गुस्सा आ रहा है?”

“यह तो मेरी समझ में आ रहा है, कि जनता को नियन्त्रित करने के लिए दण्ड का प्रयोग भी करना पड़ता है, मगर वाणी तो मधुर रखी जा सकती है.”

“खुल कर कहो हुआ क्या है?” बेताल ने विक्रम को कुरेदते हुए पूछा.

“होना क्या था! एक जगह भीड़ पर बेंत बरसाते कुछ खाकी वर्दीधारियों को देखकर मैं उत्सुकतावश रुक गया. निकट खड़े एक सिपाही से पूछा, “क्यों बेंत बरसाए जा रहे हो, दारोगा जी?”, तो उसने गरजते हुए कहा, ‘भाग जा यहाँ से, नहीं तो टाँगें तोड़ दूँगा. क्या वह कुछ नम्रता से बात नहीं कर सकता था?”

“विक्रम, विक्रम, अगर पुलिस नम्र हो जाए तो उससे कौन डरेगा? प्यार से समझाने का ज़माना तो अब रहा नहीं. पुलिस को अपनी छबि बनाए रखने के लिए चाहे, अनचाहे कटुता का, कठोरता का मुखौटा पहनना ही पड़ता है.”

“अच्छा बेताल, यह बताओ, कि हरदम इसी कठोरता के चलते, वे मीठी बात कहना-सुनना भूल ही गए होंगे. जनता में उनकी छबि भी ठीक नहीं होगी.”

“हाँ, ठीक कहते हो. पुलिस का नाम लेने से कोई अच्छी व्यक्तिरेखा नज़रों के सामने नहीं आती. पुलिस का कर्मचारी, चाहे वह मामूली सिपाही हो या बड़ा अफ़सर, आम तौर से जनता द्वारा पसंद नहीं किया जाता. मगर राजा जी, उन्हें दोष क्यों देते हो? जिन परिस्थितियों में, जितनी लम्बी समयावधि के लिए उन्हें काम करना पड़ता है, उनमें तो कोई भी अपना आपा खो देगा. मगर इन हालात से दूर उन्हें देखो तो वे भी अन्य लोगों की तरह भावुक, सहृदय, सभ्य, नम्र ही प्रतीत होंगे. कभी-कभी तो ऐसा भी होता है, कि यदि कोई उनसे प्यार से बातें कर लें, तो वे मक्खन से भी ज़्यादा मुलायम नज़र आते हैं. उनकी कठोरता होती है सिर्फ अपराधियों के लिए. हाँ, ये बात और है कि वे अक्सर सामने वाले आदमी को पहली नज़र में अपराधी ही समझ बैठते हैं, पहली-पहली बात कड़कती आवाज़ में ही कर बैठते हैं. जब उन्हें विश्वास हो जाता है, कि उनसे बात करने वाला व्यक्ति निरापद है, तब कहीं जाकर वे निःशंक होकर वार्तालाप कर पाते हैं.”

“बेताल, जो कुछ मैंने आज देखा, उसे देखकर तो मैं यह मानने को तैयार ही नहीं हूँ कि पुलिस वालों में कोई सभ्य, सुसंस्कृत व्यक्ति होगा.”

“रुको, रुको, राजाजी! उतावलेपन में सभी को एक जैसा न समझ लेना. सुनो, आज तुम्हें एक बहुत बड़े पुलिस अफ़सर के बारे में बताता हूँ.”

“बहुत बड़े, मतलब, बहुत कठोर!” बोल पड़ा राजा विक्रम.

“बिल्कुल गलत! सुनो, ये अफ़सर महोदय, जिनका नाम है सुविचारी जी, बहुत पढ़े-लिखे, बड़े ही कुशल, सज्जन पुरुष हैं. अभी कुछ ही दिन पहले उन्हें एक बड़ा सम्मान भी प्राप्त हुआ है. एक दिन उन्होंने अख़बार में पढ़ा कि किसी महान लेखक के बारे में एक पुस्तक प्रकाशित हुई है. सुविचारी जी को वह पुस्तक चाहिए थी, उन्होंने तुरंत प्रकाशक से सम्पर्क किया. उन्हें बताया गया, कि पुस्तक सीधे सम्पादक से प्राप्त की जा सकती है. सुविचारी जी ने तुरन्त एक सिपहिए को दौड़ाया, पुस्तक उन्हें दे दी गई. अब, सम्पादक असमंजस में! भला पुलिस का इतना बड़ा अफ़सर और साहित्य में इतनी रुचि! ख़ैर, एक भले इन्सान होने के नाते उन्होंने पुस्तक तो भेज दी, मगर उनकी उत्सुकता ख़ामोश रहने को तैयार ही न थी. सोचा, चलो, दूरभाष से ही कुछ अन्दाज़ लगाया जाए कि कैसे हैं सुविचारी जी!

सुविचारी जी से सम्पर्क बनाना टेढ़ी खीर थी. चारों ओर कर्मचारी दौड़ते रहते, व्यक्तिगत रूप से उन तक पहुँचना तो असंभव था, मगर सम्पादक ने भी उनसे बात करने की ठान ही ली थी. लगातार तीन दिन तक प्रयत्न करने के बाद उनसे बात हो पाई. यह कहने पर, कि “मैं सुविचारी जी से बात करना चाहता हूँ,” एक कड़कती आवाज़ ने कहा, “सुविचारी बोल रहा हूँ, कहिए.”

सम्पादक ने अपना परिचय देकर कहा कि वह सिर्फ यह जानना चाहते हैं कि पुस्तक सुविचारी जी तक पहुँची या नहीं. इतना कहने भर की देर थी, कि सुविचारी जी अपनी मीठी, सौम्य, सहज, सरस भाषा में बात करने लगे. वर्दी का वलय कहीं खो गया. सम्पादक को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ, वे पूछ ही बैठे, “पुलिस की वर्दी में ऐसा कवि-हृदय? सुविचारी जी, आप से बात करके मैं गद्गद् हो गया. बताइए, आपको इस लेखक में इतनी रुचि कैसे उत्पन्न हुई, और क्या आप पुस्तक वास्तव में पढ़ पाएँगे?”

“प्रशासनिक सेवा अलग बात है, और व्यक्तिगत रुचि उससे एकदम भिन्न है,” विक्रम ने बीच ही में टोकते हुए कहा, “कर्तव्य की मांग है – कठोरता, वहाँ सौम्यता से काम नहीं चलता, मगर हृदय के, आत्मा के जन्मजात गुण तो शाश्वत होते हैं.”

“जैसे नारियल का फल होता है,” बेताल बोला, “वह जानता है, कि पेड़ से टूटकर उसे कठोर भूमि पर गिरना है. अगर उसका आवरण नरम होगा तो पृथ्वी पर गिरकर चूर-चूर हो जाएगा. अतः कड़ा आवरण धारण करना ही पड़ता है. मगर जब इस आवरण को हटा दो तो अंदर नरम, मीठा फल पाओगे.”

“ठीक कहते हो, बेताल,” राजा विक्रम ने सहमत होते हुए कहा, “मगर मुझे यह चिंता सता रही है, कि इस प्रशासनिक सेवा में रहते हुए कितने काल तक सुविचारी जी अपने मृदु स्वभाव को सहेजे रहेंगे.”

“मालूम नहीं…” बेताल का उत्तर था.

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Thursday, 2 August 2018

पूछे विक्रम,बोले बेताल - 05




बुद्धिजीवी कैक्टस
                                                           अफ़लातून


“आनन्द वन में बड़ा सुहाना उद्यान था. उद्यान के बीचोंबीच एक ताल, लुभावने फूलों वाले पौधे, घने छायादार वृक्ष, विभिन्न प्रकार के पंछी...पंछियों की चहचहाहट, फूलों की ख़ुशबू...आहा हा हा...क्या रम्य वातावरण था, मानो पृथ्वी पर स्वर्ग उतर आया हो.”

बेताल अपनी धुन में बोले जा रहा था और विक्रम गाल पर हाथ रखे विस्मय भरी आँखों से उसे निहारे जा रहा था. बेताल इतना मगन होकर सुना रहा था कि उसे टोकना विक्रम की जान पर आ रहा था. वह उससे कह भी नहीं पा रहा था, कि बेताल जो कुछ भी सुना रहा था, उसका अगला-पिछला कुछ भी तो विक्रम को मालूम नहीं था. अचानक बेताल की नज़र उस पर पड़ी तो वह बात को फ़ौरन ताड़ कर कुछ झेंप गया और कुछ देर ख़ामोश रहने के बाद बोला:

“माफ़ करना राजा जी, असल में यह जगह, यह वातावरण मुझे इतना पसन्द था उसके बारे में कुछ भी बताते समय मैं भावविभोर होकर अपने आप को भूल जाता हूँ.”

“वह तो मैं देख ही रहा हूँ, बेताल, मगर तुम मुझे सिर्फ इतना बता दो कि यह उद्यान था कहाँ पर और तुम ये था’…’थे’…’ क्यों कह रहे हो? क्या अब वह वहाँ नहीं है?”

बेताल की आँखों में आँसू भर आए और विक्रम उसे टुकुर-टुकुर देखता रहा. उसे तो इस बात का गुमान भी न था बेताल तक को कोई चीज़ विचलित कर सकती है. उसने बेताल को संयमित होने के लिए कुछ समय दिया.

कुछ ही क्षणों में बेताल आगे बतलाने लगा, “बात सौभाग्य नगर की है. और मैंने था’…’थे’…इसलिए कहा कि अब वह उद्यान वैसा नहीं रहा.”

“वैसा नहीं रहा तो फिर से उसे सुंदर बना लेंगे. तुम निराश क्यों होते हो, बेताल?”

“इसलिए कि उसके ठीक-ठाक होने की मुझे तो कोई उम्मीद नज़र नहीं आती.”

“वह क्यों?”

“विक्रम, तुम्हें तो मालूम ही है कि एक मछली पूरे तालाब को गन्दा कर देती है, और फिर उसे साफ़ करना असंभव हो जाता है.”

“तो, यहाँ किसने ख़राब कर दिया उद्यान को?”

“आओ, वहीं चलकर देख लेते हैं.”

विक्रम और बेताल आनन्द वन पहुँचे. कुछ दूर से विक्रम को ऐसा आभास हुआ मानों सहस्त्रों हरे-हरे सर्प कुंडली मारे, अस्त-व्यस्त पड़े हैं. उसका दिल बैठने लगा. कुछ और निकट पहुँच कर देखा कि वे सर्प नहीं, बल्कि पौधे थे. ऐसे पौधे जिनका रंग पूरी तरह हरा था, भिन्न-भिन्न आकृतियों के होते हुए भी उन सब पर काँटे ही काँटे थे. विक्रम ने ऐसे पौधे पहले कभी नहीं देखे थे. अतः वह बेताल की ओर देखने लगा.

बेताल ने कहा, “राजा जी, ये कैक्टस कहलाते हैं. कम पानी में, पथरीली ज़मीन पर, गमलों में, क्यारियों में, कहीं भी उग आते हैं. इनके काँटे बड़ी पीड़ा देते हैं, वे कुछ ज़हरीले भी होते हैं.”

“ये इतने सारे कैक्टस यहाँ कैसे आ गए?”

“सुनो, इस आनन्द वन में जब प्रसन्नता का वातावरण था, कहीं से एक कैक्टस का पौधा आ गया. उसे भी एक भले मानुस लाए थे, उस पौधे को कहीं जगह नहीं मिल रही थी, जीने की उसमें इच्छा थी, सो भले मानुस के दामन में उलझ गया. उन्हें भी उस पर दया आ गई और उसके विषैले स्वभाव से बेख़बर वे उसे आनन्द वन ले आए. पहले तो फूलों वाले पौधों ने नाक-भौं सिकोड़ी, फिर सोचा, चलो रह लेगा. थोड़ी सी जगह ही तो चाहिए उसे. हो सकता है, हमारे बीच रहकर वह अपने स्वभाव को भूल जाए. काँटों को झाड़कर फूलों वाला बन जाए.”

“मगर आनन्द वन पहुँचने से पहले यह कैक्टस रहता कहाँ था? क्या उसका कोई नहीं था?”

“था क्यों नहीं? सब थे. वह कैक्टस प्रदेश में विद्याध्ययन करने गया था. वहाँ परिवार भी बसाया. जब कैक्टस प्रदेश से निकलने का समय आया तो अपने नन्हें कैक्टस और कैक्टसनी को वहीं छोड़कर आ गया. फिर कभी उनकी कोई खोज-ख़बर भी नहीं ली.

शायद मन के किसी कोने में भावनाएँ थीं, मगर परिवार त्यागने का इन भावनाओं पर विपरीत असर हुआ. वह अधिकाधिक विषैला और कंटीला होने लगा. फूलों वाले सुंदर पौधों को उसने लहुलुहान कर दिया. उद्विग्न होकर अनेक पौधे वहाँ से स्थानांतरित हो गए, कुछ समाप्त भी हो गए. यूँ समझो, कि कटु भावनाओं का प्रवाह आनन्दवन से आनन्द को बहाकर ले गया.”

“मगर, बेताल, मुझे एक बात समझ में नहीं आ रही. वह कैक्टस तो अकेला था ना! उसे सभी फूल वाले पौधों ने मिलकर बाहर क्यों नहीं खदेड़ दिया?”

“जब तक वे संभलते, काफ़ी देर हो चुकी थी. इस एक कैक्टस की देखा-देखी अनेक कैक्टस वहाँ आकर बस गए थे. अब तो हालत यह हो गई है, कि वहाँ पुष्पाच्छादित पौधे बस दो चार ही रह गए हैं. अब यह आनन्द वन कैक्टस-वन बन गया है. जहाँ-तहाँ विषैलापन, कंटीलापन, द्वेष, ईर्ष्या; सद्सद् विचार न जाने कहाँ लुप्त हो गए हैं, भूले-भटके यदि कोई बुद्धिमान, सीधा-सादा पौधा यहाँ पनपना भी चाहे, तो ये कैक्टस उसे कांटे चुभा-चुभाकर हैरान किये देते हैं. उनके ज़हर से वह जी भी नहीं पाता.”

“तो फूलों वाले पौधों को अलग उद्यान में लगाएँगे. इन कैक्टसों को प्रेम से रहने दो.”

“प्रेम से? प्रेम शब्द तो उनके शब्द-कोष में ही नहीं है. वे सभी तो कंटीले हैं. किसी और फूल वाले पौधे को न पाकर वे एक दूसरे को ही अपने कांटे चुभोते हैं. जब वे निकट आते, तो फूलदार पौधा मित्र समझकर अपना हाथ आगे बढ़ाता, हाथ मिलाते ही कैक्टस के कांटों से लहुलुहान हो जाता.”

“याने, कहीं ऐसा तो नहीं, कि यह कैक्टस भले पौधे को ज़ख़्मी करने के इरादे से ही मित्रता का ढोंग रचाते हुए उसके गले पड़ जाता हो?”

“बिल्कुल यही! शिकार को फाँसना, उससे निकटता बढ़ाना, उसे आहत करना और पराजित करना...ऐसी है इनकी कार्यशैली.”

“मगर बेताल, तुम कह रहे हो कि ये कैक्टस एक दूसरे को भी अपने कांटे चुभो देते हैं. अपनों पर तो कोई इस तरह वार नहीं करता.”

“कहाँ के अपने, राजाजी! कैक्टसों की दुनिया में कोई अपना नहीं होता. सभी दुश्मन होते हैं. काँटे चुभोना उनका धर्म है, वरना भीतर का ज़हर कैसे कम होगा? अगर ज़हर कम नहीं होगा तो यही ज़हर उनके अपने अस्तित्व को भी तो समाप्त कर देगा न! इसलिए वे कांटे चुभोते रहेंगे.”

“इस सबका अन्त?”

“अब तो ये कैक्टस एक दूसरे पर भी खुलकर वार कर रहे हैं, शराफ़त का मुखौटा लगाए. ताज्जुब की बात तो ये है कि हर कैक्टस दूसरे कैक्टस की फ़ितरत को ख़ूब समझता है. जानता है, कि सामने वाला कैक्टस उसे नुक्सान पहुँचायेगा, अतः उसके आक्रमण को कम असरदार बनाने के लिए अपने काँटे तेज़ करता रहता है, ज़हर की मात्रा को बढ़ाता रहता है.”

“याने युद्ध भीषण से भीषणतर हो चला है. तो, सबसे पहले वाले कैक्टस के अब क्या हालचाल हैं?”

“वह साधु-सन्यासियों जैसी, बुद्धिजीवियों जैसी वेषभूषा में, अपने कांटे छिपाए बैठा है. जब कोई ख़ुद उसके निकट आता है, तो कांटे चुभो देता है, वरना अक्सर शाम को टहलने निकलता है और आने-जाने वालों को कांटे चुभो-चुभोकर वापस लौट आता है.”

“शरीफ़ बन गया है?”

“असंभव! शरीफ़ वह बन नहीं सकता. बनेगा तो कांटे न चुभा पायेगा...अर्थात् स्वयँ ही अपने विष से समाप्त हो जाएगा. अभी वह कैक्टस-युद्ध को देखता रहता है, कभी-कभी अन्य कैक्टसों को सलाह भी दे दिया करता है. मगर इस ख़तरे से भी वह बुद्धिजीवी कैक्टस अनजान नहीं है, कि इस सब का आरंभ भी उसी ने किया था. इस बढ़ते हुए ज़हर का ज़िम्मेदार वह स्वयम् ही है.

और, हो सकता है कि कभी अन्य सभी कैक्टस उसी को अपना निशाना बना लें, तब वह अपनी रक्षा कैसे करेगा? अतः मौन साधना से अपने ज़हर को बढ़ाता हुआ नित नई युद्ध प्रणालियों पर विचार करता रहता है यह बुद्धिजीवी कैक्टस.”

“इस सबका अन्त?” विक्रम ने पूछा.

“मालूम नहीं…” बेताल का जवाब था.

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पूछे विक्रम, बोले बेताल - 12

12. राजनीति में झूठ अफ़लातून  उस दिन टहलते-टहलते विक्रम और बेताल पहुँच गए सौभाग्य नगर के विमानपत्तन के निकट. देखा कि चारों ओर बड़...