Thursday, 2 August 2018

पूछे विक्रम,बोले बेताल - 05




बुद्धिजीवी कैक्टस
                                                           अफ़लातून


“आनन्द वन में बड़ा सुहाना उद्यान था. उद्यान के बीचोंबीच एक ताल, लुभावने फूलों वाले पौधे, घने छायादार वृक्ष, विभिन्न प्रकार के पंछी...पंछियों की चहचहाहट, फूलों की ख़ुशबू...आहा हा हा...क्या रम्य वातावरण था, मानो पृथ्वी पर स्वर्ग उतर आया हो.”

बेताल अपनी धुन में बोले जा रहा था और विक्रम गाल पर हाथ रखे विस्मय भरी आँखों से उसे निहारे जा रहा था. बेताल इतना मगन होकर सुना रहा था कि उसे टोकना विक्रम की जान पर आ रहा था. वह उससे कह भी नहीं पा रहा था, कि बेताल जो कुछ भी सुना रहा था, उसका अगला-पिछला कुछ भी तो विक्रम को मालूम नहीं था. अचानक बेताल की नज़र उस पर पड़ी तो वह बात को फ़ौरन ताड़ कर कुछ झेंप गया और कुछ देर ख़ामोश रहने के बाद बोला:

“माफ़ करना राजा जी, असल में यह जगह, यह वातावरण मुझे इतना पसन्द था उसके बारे में कुछ भी बताते समय मैं भावविभोर होकर अपने आप को भूल जाता हूँ.”

“वह तो मैं देख ही रहा हूँ, बेताल, मगर तुम मुझे सिर्फ इतना बता दो कि यह उद्यान था कहाँ पर और तुम ये था’…’थे’…’ क्यों कह रहे हो? क्या अब वह वहाँ नहीं है?”

बेताल की आँखों में आँसू भर आए और विक्रम उसे टुकुर-टुकुर देखता रहा. उसे तो इस बात का गुमान भी न था बेताल तक को कोई चीज़ विचलित कर सकती है. उसने बेताल को संयमित होने के लिए कुछ समय दिया.

कुछ ही क्षणों में बेताल आगे बतलाने लगा, “बात सौभाग्य नगर की है. और मैंने था’…’थे’…इसलिए कहा कि अब वह उद्यान वैसा नहीं रहा.”

“वैसा नहीं रहा तो फिर से उसे सुंदर बना लेंगे. तुम निराश क्यों होते हो, बेताल?”

“इसलिए कि उसके ठीक-ठाक होने की मुझे तो कोई उम्मीद नज़र नहीं आती.”

“वह क्यों?”

“विक्रम, तुम्हें तो मालूम ही है कि एक मछली पूरे तालाब को गन्दा कर देती है, और फिर उसे साफ़ करना असंभव हो जाता है.”

“तो, यहाँ किसने ख़राब कर दिया उद्यान को?”

“आओ, वहीं चलकर देख लेते हैं.”

विक्रम और बेताल आनन्द वन पहुँचे. कुछ दूर से विक्रम को ऐसा आभास हुआ मानों सहस्त्रों हरे-हरे सर्प कुंडली मारे, अस्त-व्यस्त पड़े हैं. उसका दिल बैठने लगा. कुछ और निकट पहुँच कर देखा कि वे सर्प नहीं, बल्कि पौधे थे. ऐसे पौधे जिनका रंग पूरी तरह हरा था, भिन्न-भिन्न आकृतियों के होते हुए भी उन सब पर काँटे ही काँटे थे. विक्रम ने ऐसे पौधे पहले कभी नहीं देखे थे. अतः वह बेताल की ओर देखने लगा.

बेताल ने कहा, “राजा जी, ये कैक्टस कहलाते हैं. कम पानी में, पथरीली ज़मीन पर, गमलों में, क्यारियों में, कहीं भी उग आते हैं. इनके काँटे बड़ी पीड़ा देते हैं, वे कुछ ज़हरीले भी होते हैं.”

“ये इतने सारे कैक्टस यहाँ कैसे आ गए?”

“सुनो, इस आनन्द वन में जब प्रसन्नता का वातावरण था, कहीं से एक कैक्टस का पौधा आ गया. उसे भी एक भले मानुस लाए थे, उस पौधे को कहीं जगह नहीं मिल रही थी, जीने की उसमें इच्छा थी, सो भले मानुस के दामन में उलझ गया. उन्हें भी उस पर दया आ गई और उसके विषैले स्वभाव से बेख़बर वे उसे आनन्द वन ले आए. पहले तो फूलों वाले पौधों ने नाक-भौं सिकोड़ी, फिर सोचा, चलो रह लेगा. थोड़ी सी जगह ही तो चाहिए उसे. हो सकता है, हमारे बीच रहकर वह अपने स्वभाव को भूल जाए. काँटों को झाड़कर फूलों वाला बन जाए.”

“मगर आनन्द वन पहुँचने से पहले यह कैक्टस रहता कहाँ था? क्या उसका कोई नहीं था?”

“था क्यों नहीं? सब थे. वह कैक्टस प्रदेश में विद्याध्ययन करने गया था. वहाँ परिवार भी बसाया. जब कैक्टस प्रदेश से निकलने का समय आया तो अपने नन्हें कैक्टस और कैक्टसनी को वहीं छोड़कर आ गया. फिर कभी उनकी कोई खोज-ख़बर भी नहीं ली.

शायद मन के किसी कोने में भावनाएँ थीं, मगर परिवार त्यागने का इन भावनाओं पर विपरीत असर हुआ. वह अधिकाधिक विषैला और कंटीला होने लगा. फूलों वाले सुंदर पौधों को उसने लहुलुहान कर दिया. उद्विग्न होकर अनेक पौधे वहाँ से स्थानांतरित हो गए, कुछ समाप्त भी हो गए. यूँ समझो, कि कटु भावनाओं का प्रवाह आनन्दवन से आनन्द को बहाकर ले गया.”

“मगर, बेताल, मुझे एक बात समझ में नहीं आ रही. वह कैक्टस तो अकेला था ना! उसे सभी फूल वाले पौधों ने मिलकर बाहर क्यों नहीं खदेड़ दिया?”

“जब तक वे संभलते, काफ़ी देर हो चुकी थी. इस एक कैक्टस की देखा-देखी अनेक कैक्टस वहाँ आकर बस गए थे. अब तो हालत यह हो गई है, कि वहाँ पुष्पाच्छादित पौधे बस दो चार ही रह गए हैं. अब यह आनन्द वन कैक्टस-वन बन गया है. जहाँ-तहाँ विषैलापन, कंटीलापन, द्वेष, ईर्ष्या; सद्सद् विचार न जाने कहाँ लुप्त हो गए हैं, भूले-भटके यदि कोई बुद्धिमान, सीधा-सादा पौधा यहाँ पनपना भी चाहे, तो ये कैक्टस उसे कांटे चुभा-चुभाकर हैरान किये देते हैं. उनके ज़हर से वह जी भी नहीं पाता.”

“तो फूलों वाले पौधों को अलग उद्यान में लगाएँगे. इन कैक्टसों को प्रेम से रहने दो.”

“प्रेम से? प्रेम शब्द तो उनके शब्द-कोष में ही नहीं है. वे सभी तो कंटीले हैं. किसी और फूल वाले पौधे को न पाकर वे एक दूसरे को ही अपने कांटे चुभोते हैं. जब वे निकट आते, तो फूलदार पौधा मित्र समझकर अपना हाथ आगे बढ़ाता, हाथ मिलाते ही कैक्टस के कांटों से लहुलुहान हो जाता.”

“याने, कहीं ऐसा तो नहीं, कि यह कैक्टस भले पौधे को ज़ख़्मी करने के इरादे से ही मित्रता का ढोंग रचाते हुए उसके गले पड़ जाता हो?”

“बिल्कुल यही! शिकार को फाँसना, उससे निकटता बढ़ाना, उसे आहत करना और पराजित करना...ऐसी है इनकी कार्यशैली.”

“मगर बेताल, तुम कह रहे हो कि ये कैक्टस एक दूसरे को भी अपने कांटे चुभो देते हैं. अपनों पर तो कोई इस तरह वार नहीं करता.”

“कहाँ के अपने, राजाजी! कैक्टसों की दुनिया में कोई अपना नहीं होता. सभी दुश्मन होते हैं. काँटे चुभोना उनका धर्म है, वरना भीतर का ज़हर कैसे कम होगा? अगर ज़हर कम नहीं होगा तो यही ज़हर उनके अपने अस्तित्व को भी तो समाप्त कर देगा न! इसलिए वे कांटे चुभोते रहेंगे.”

“इस सबका अन्त?”

“अब तो ये कैक्टस एक दूसरे पर भी खुलकर वार कर रहे हैं, शराफ़त का मुखौटा लगाए. ताज्जुब की बात तो ये है कि हर कैक्टस दूसरे कैक्टस की फ़ितरत को ख़ूब समझता है. जानता है, कि सामने वाला कैक्टस उसे नुक्सान पहुँचायेगा, अतः उसके आक्रमण को कम असरदार बनाने के लिए अपने काँटे तेज़ करता रहता है, ज़हर की मात्रा को बढ़ाता रहता है.”

“याने युद्ध भीषण से भीषणतर हो चला है. तो, सबसे पहले वाले कैक्टस के अब क्या हालचाल हैं?”

“वह साधु-सन्यासियों जैसी, बुद्धिजीवियों जैसी वेषभूषा में, अपने कांटे छिपाए बैठा है. जब कोई ख़ुद उसके निकट आता है, तो कांटे चुभो देता है, वरना अक्सर शाम को टहलने निकलता है और आने-जाने वालों को कांटे चुभो-चुभोकर वापस लौट आता है.”

“शरीफ़ बन गया है?”

“असंभव! शरीफ़ वह बन नहीं सकता. बनेगा तो कांटे न चुभा पायेगा...अर्थात् स्वयँ ही अपने विष से समाप्त हो जाएगा. अभी वह कैक्टस-युद्ध को देखता रहता है, कभी-कभी अन्य कैक्टसों को सलाह भी दे दिया करता है. मगर इस ख़तरे से भी वह बुद्धिजीवी कैक्टस अनजान नहीं है, कि इस सब का आरंभ भी उसी ने किया था. इस बढ़ते हुए ज़हर का ज़िम्मेदार वह स्वयम् ही है.

और, हो सकता है कि कभी अन्य सभी कैक्टस उसी को अपना निशाना बना लें, तब वह अपनी रक्षा कैसे करेगा? अतः मौन साधना से अपने ज़हर को बढ़ाता हुआ नित नई युद्ध प्रणालियों पर विचार करता रहता है यह बुद्धिजीवी कैक्टस.”

“इस सबका अन्त?” विक्रम ने पूछा.

“मालूम नहीं…” बेताल का जवाब था.

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Monday, 30 July 2018

पूछे विक्रम, बोले बेताल - 04




स्वर्णलता और सिंहासन
                                                       --अफ़लातून

“बेताल”, राजा विक्रम ने कहा, “अब कुछ भारतवर्ष के बारे में भी बताओ. वहाँ कौन राज्य कर रहा है आजकल?”

“कहाँ का राज्य और कहाँ का राजा! राजे-रजवाड़ों के दिन तो कब के लद गए, अब वहाँ जनता अपना शासक चुनती है, और वह शासक पाँच वर्षों तक राज्य चलाता है.”

“तो, आजकल कौन है शासक?”

“अब तो नया शासक चुने जाने का समय आ पहुँचा है. कभी-कभी यूँ भी होता है कि पाँच वर्षों की अवधि पूरी होने से पहले ही नया शासक चुनने की नौबत आ जाती है. राजा जी, इस समय शासक पद के दावेदार कई हैं, जिनमें एक राजकुमारी भी है.”  

“राजकुमारी, किस वंश की? जल्दी से बताओ, मैं तो सभी वंशों को जानता हूँ.”

“नहीं, नहीं, यह वैसा वंश नहीं है. इस वंश में दादा से लेकर पोते तक तीन शासक रह चुके हैं. यह राजकुमारी वीरगति को प्राप्त हुए राजकुमार की रानी है.”

“आह, मैं एक झलक देख लेता!”

“इसमें कौन सी बड़ी बात है, तुम आँखें बंद करो, तुम्हें राजकुमारी स्वर्णलता के दर्शन कराए देता हूँ.”
विक्रम ने आँखें मूंद लीं, तो देखा कि रोते-बिलखते, छाती पीटते स्त्री-पुरुषों की भीड़ लगी है, कुछ पुरुष एक महिला को, जो एक ऊँचे स्थान पर खड़ी थी, खींचकर नीचे लाने की चेष्टा कर रहे थे, महिला का शरीर भीगा हुआ था. तभी एक गोरी चिट्टी, चौड़े ललाट वाली, अनावृत शीश, बिखरे केश-कलाप वाली महिला एक द्वार से बाहर निकली और भीड़ से कुछ कहने लगी.

विक्रम ने आँखें खोल दीं, और बेताल से पूछा, “यह मुक्त केश वाली थी न स्वर्णलता?”

“हाँ, वही थी.”

“ये लोग रो क्यों रहे हैं? और यह स्वर्णलता भारतीय महिला जैसी भी नहीं दिखाई देती.”

“यही कारण है इस रुदन का! असल में स्वर्णलता है विदेशी. मगर पति की अथाह सम्पत्ति एवम् अनेक सम्माननीय व्यक्तियों के भेद उसके पास हैं. सोचती है, पति के पश्चात् सिंहासन उसे ही मिलना चाहिए. मगर कुछ लोगों ने कहा, कि भारतवर्ष का शासक भारत माँ का सपूत ही हो सकता है. स्वर्णलता कोपभवन में जा बैठी. ये लोग, जो रो रहे हैं, उसे मनाने आए हैं, ये भीगी हुई महिला मिट्टी का तेल छिड़ककर आत्मदाह करने की धमकी दे रही है, कहती है, स्वर्णलता कोपभवन से निकलकर अपना जनसेवा का कार्य जारी रखे.”

“फिर लोग उसे बचाते क्यों नहीं?”

“अमाँ, विक्रम, अब इतने भोले भी न बनो! देखते नहीं, इन्हें तस्वीर उतारने वालों का इंतज़ार है. ये तो सब नाटक कर रहे हैं, कि तेल छिड़का जाएगा, नीचे खड़े लोग चीखेंगे...चिल्लाएँगे, उसे नीचे खीचेंगे...इतनी देर में तस्वीर खिंच जाएगी. या यूँ कहो, कि तस्वीर खिंचने तक यह दृश्य जारी रहेगा.”

“यह तुम कैसे कह सकते हो, बेताल?”

“दिखाओ तो मुझे भीड़ में कोई ऐसा हाथ, जिसने दियासलाई थामी हो, या मशाल पकड़ रखी हो! बड़े आये आत्मदाह करने वाले! इन्हें तो इस नाटक के लिए धन दिया गया है!”

“मैं विश्वास नहीं कर सकता! देखो तो, कैसे रो रहे हैं बेचारे!”

“राजा जी, तुम भी हद करते हो! जानते हो, जब परिवार में कोई मृत्यु हो जाती है, तो कुछ लोग रोने-पीटने के लिए महिलाओं को धन देकर बुलाते हैं. ये महिलाएँ खूब रोती हैं, बाल खींचकर, छाती पीटकर! इन्हें कहते हैं – रुदाली’. बस, यहाँ भी रुदालियाँ ही आई हैं.”

“तुम्हीं तो कह रहे हो, कि रुदाली स्त्री होती है. क्या पुरुष-रुदाली भी होने लगे हैं आजकल?”

“मालूम नहीं...”

“अच्छा, यह तो बताओ, कि स्वर्णलता ने यह जानते हुए भी कि वह विदेशी है, शासक बनने का निश्चय क्यों किया है?”

“यही तो बात है, विक्रम! स्वर्णलता कहती है कि वह भारतीय है.”

“सो कैसे?”

“कहती है, कि वह यहाँ ब्याह कर आई, यहीं उसकी संतानों ने जन्म लिया, यहीं उसके पति वीरगति को प्राप्त हुए, उसने भारत की नागरीकता ग्रहण कर ली है और इसलिए भारतवर्ष ही उसकी मातृभूमि है. अब कहो, क्या कहते हो?”

“कैसी बात करते हो बेताल? मातृभूमि क्या एक से ज़्यादा हो सकती है? क्या अब भारतवर्ष को अपनी मातृभूमि बनाकर उसने अपनी असली मातृभूमि को छोड़ दिया है? क्या कोई अपनी माँ को छोड़कर किसी अन्य स्त्री को माँ कह सकता है?

अव्वल तो अपनी माँ को कोई त्याग ही नहीं सकता, जननी और जन्मभूमि तो स्वर्ग से भी श्रेष्ठ हैं. और यदि कोई अपनी मातृभूमि को त्याग दे, वह भी केवल इसलिए कि उसे पराए देश पर शासन करना है, तो किसी बड़े लालच के लोभ में वह अपनी मानी हुई मातृभूमि को भी न त्याग देगा? इस बात को क्या कोई समझ नहीं पा रहा है?”

“सभी समझ रहे हैं...”

“फिर कोई कुछ करता क्यों नहीं?”

“मालूम नहीं...”

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Wednesday, 25 July 2018

पूछे विक्रम, बोले बेताल - 03




अस्ताचल साम्राज्य

अफ़लातून


“बेताल, तुमने बताया, कि अधिकांश भारतीय युवक नौकरी करने के लिए कुबेरपुर जाते हैं, या फिर अस्ताचल साम्राज्य. कुबेरपुर के बारे में तो तुमने मुझे बताया था, अब कुछ बात अस्ताचल साम्राज्य की भी हो जाए.”

“ज़रूर होगी, राजाजी! सात समुन्दर पार एक नदी के किनारे पर बसी है अस्ताचल साम्राज्य की राजधानी. एक ज़माना था, जब अस्ताचल साम्राज्य में सूर्य कभी अस्त ही नहीं होता था.”

“मतलब?” राजा विक्रम ने विस्मय से पूछा.

“मतलब यह कि अस्ताचल साम्राज्य के आधीन पूर्व-पश्चिम दिशाओं के इतने देश थे कि सूर्य देवता की प्रदक्षिणा करती वसुंधरा का जो भी पार्श्व सूर्य देवता का नमन करता, वहीं अस्ताचल साम्राज्य का अधीनस्थ देश होता.”

“अब क्या स्थिति है?” विक्रम ने फिर पूछा.

इस बार बेताल ने गंभीरतापूर्वक कहा, “सुनो, विक्रम, तुम्हें यह बात भली-भांति मालूम है कि समय-चक्र घूमता ही रहता है, अर्थात् समय कभी एक-सा रह ही नहीं सकता. जिस स्थान पर दिन निकलता है, वहीं रात को भी आना ही है, और रात ख़त्म होते ही दिन भी अवश्य निकलेगा. तो अस्ताचल साम्राज्य में समझ लो कि सूर्यास्त हो चुका है. उसके अधीनस्थ सभी देश धीरे-धीरे स्वतंत्र हो गए और अब अस्ताचल पुराने, ध्वस्त खंडहर की भाँति खड़ा है.”

“भारत पर भी क्या अस्ताचल साम्राज्य ने अधिकार किया था?”

“हाँ, दुर्भाग्यवश, ऐसा ही हुआ था. वे आये थे व्यापार करने, मगर अपनी धूर्तता से स्वामी बन बैठे. उस समय भारत में व्याप्त फूट का भी इसमें बड़ा योगदान था. भारतवासियों को उन्होंने खूब सताया था. यहाँ की धन-दौलत अपने साथ ले गए. अंत में अनेक वर्षों के लम्बे संघर्ष के पश्चात् भारत ने स्वाधीनता प्राप्त कर ली.”

“अस्ताचल साम्राज्य का सम्राट कौन है?”

“इस समय वहाँ महारानी है. सम्राट नहीं हैं. महारानी के पति सम्राट न होते हुए भी राजकाज में काफ़ी दखल देते हैं. अनेक समारोहों में जाते हैं और जो भी मन में आये, कह देते हैं. लोगों का उपहास करना उन्हें बहुत अच्छा लगता है. अस्ताचल साम्राज्य की तुलना में अन्य देशों को हीन समझना उनकी आदत है.”

“कोई उदाहरण?”

“हाँ, हाँ! अभी कुछ ही दिन पूर्व वे एक प्रदर्शनी देखने गए. ज़ाहिर है, प्रदर्शन की सभी वस्तुएँ उनकी ही प्रजा ने बनाई थीं. एक स्थान पर किसी गुड़िया की पोषाक के धागे लटकते दिखाई दिए, तो महारानी के पतिदेव ने कहा : “यह शायद ***देश से बनकर आई है!” और हँसने लगे. जब ***के नागरिकों तक यह बात पहुँची तो वे बड़े नाराज़ हुए और महारानी के पतिदेव का विरोध करने लगे. अब तो पतिदेव सकपका गए. उनके पास कोई ताकत या अधिकार तो थे नहीं, वे तो बस महारानी के आभामंडल में ही जुगनू की भाँति विचरते रहते थे. अतः उन्होंने क्षमायाचना करने में ही अपनी भलाई समझी और यह कहकर बात रफ़ा-दफ़ा कर दी कि वे तो बस मज़ाक कर रहे थे.”

“अब कहो, राजा, मिल गया न प्रमाण?”

“हाँ, प्रमाण भी मिल गया और साथ ही यह भी पता चल गया कि अस्ताचल साम्राज्य में कार्य कर रहे विदेशी नागरिकों पर क्या गुज़रती होगी. जहाँ शासनाधिपति ही उन्हें फूहड़, उपहास का पात्र समझे, वहाँ आम व्यक्ति उनके साथ कैसा व्यवहार करता होगा? कभी-कभी तो मैं सोच में पड़ जाता हूँ कि ***देश के नागरिकों से वहाँ कार्य भी किस प्रकार का लिया जाता होगा...”
“विदेशी नागरिक कोई भी कार्य कर लेते हैं: वे राजमार्गों को बुहारते हैं, होटलों में बर्तन साफ़ करते हैं, धोबी का, दर्जी का, सेवक का, शिशु-संगोपन का...कोई भी कार्य कर लेते हैं. हाँ, बुद्धिमान व्यक्तियों की योग्यता का भी यहाँ दोहन किया जाता है, मगर फिर भी रंग भेद, वर्ण भेद के कारण उन्हें अनेक बार अपमानास्पद हादसों से दो-दो हाथ भी करना पड़ता है.”

“हे भगवान! यदि जन्मभूमि में ही रहकर ये महानुभाव अपने परिश्रम, कौशल और ज्ञान की आहुति देते, तो वह निश्चय ही स्वर्ग समान हो जाती. अच्छा यह बताओ कि अस्ताचल महारानी की कितनी संतानें हैं? पुत्र-पौत्र इत्यादि कैसे हैं, क्या करते हैं?”

“राजा, तुम तो सभी कुछ जानना चाहते हो, मगर मैं सब कुछ नहीं बताऊँगा, कुछ ख़ास-ख़ास बातें ही बताऊँगा. सारे भेद खोलना तो मेरी फ़ितरत ही नहीं है.”

“अच्छा भाई, जैसा चाहो, जितना चाहो, उतना ही बताना.”

“महारानी के बड़े पुत्र, जो भावी सम्राट हैं, उनकी दो शादियाँ हुई हैं. उनकी पहली पत्नी आखेटिका एक दुर्घटना में चल बसीं.”

“दुर्घटना में? कहाँ, कब, कैसे?”

“राजा जी, तुम भी बड़े चतुर हो, पूरी बात जानकर ही दम लोगे! तो सुनो, राजकुमारी आखेटिका अनुपम सुन्दरी थी, प्रजा के प्रति, दीन-द्खियों के प्रति प्रेम उसके दिल में उमड़ा पड़ता था. आखेटिका राजघराने से नहीं थी, परंतु जब भावी सम्राट ने उससे विवाह करने में रुचि दिखाई, तो आखेटिका के पिता को सामन्त का ऊँचा ओहदा देकर भावी सम्राट के साथ उसका विवाह कर दिया गया. आँखों में सतरंगी सपने सजोये आखेटिका ने राजमहल में प्रवेश किया, मगर शीघ्र ही उसने पाया कि पति का किसी अन्य विवाहित महिला से संबंध है. दिल टूट गया आखेटिका का. दो राजकुमारों को जन्म देने के बाद उसने उनका लालन-पालन किया और जब वे कुछ बड़े हुए तो उसने समाज कल्याण के कार्यों में रुचि लेना आरंभ कर दिया. राजमाता को पुत्रवधू का इस तरह घूमना-फिरना, आम लोगों से मिलना-जुलना पसंद नहीं था. उन्होंने उसके साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया. राजपुत्रों के समझदार होते ही, जब आखेटिका ने महसूस किया कि उसके पति विवाह-बाह्य संबंध को नहीं छोड़ेंगे, तो उसने पृथक रहने का निश्चय कर लिया. कुछ समय पश्चात् विवाह-विच्छेद भी हो गया.”

“क्या भावी सम्राट ने अपनी प्रेमिका से विवाह किया?”

“नहीं, विक्रम उस राजघराने में उस समय इसकी अनुमति नहीं थी, उन्हें काफ़ी सालों तक रुकना पड़ा...अनेक उलझनों भरे हैं वहाँ के रीति-रिवाज.”

“आखेटिका का फिर क्या हुआ?” विक्रम की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी.

“आखेटिका की त्रासदी ये थी, कि वह बड़ी भावुक थी, उन्मुक्त थी. पति से संबंध-विच्छेद होने के बाद उसने कहीं सहारा ढूँढ़ना चाहा. एक जगह आशा की किरण भी दिखाई दी और उसने एक विदेशी, परधर्मी युवक से विवाह करने का निर्णय ले लिया. सम्राज्ञी राजमाता बड़ी अप्रसन्न थीं. राजप्रासाद में प्रति सप्ताह होने वाले प्रार्थना समारोह के पश्चात् प्रभु से सभी सदस्यों के लिए आशीर्वाद की प्रार्थना की जाती है. उस सप्ताह राजघराने के सदस्यों की सूची में से आखेटिका का नाम निकाल दिया गया.
कुछ ही सप्ताह बाद किसी अन्य देश में अपने भावी पति के साथ यात्रा कर रही आखेटिका का वाहन दुर्घटनाग्रस्त हो गया और उसकी इहलीला समाप्त हो गई.”

“हे ईश्वर! राजमाता को ऐसा न करना चाहिए था...” राजा के मुख से निकला.

“कहीं तुम यह तो नहीं कहना चाहते हो, कि आखेटिका की मृत्यु में राजमाता का हाथ था?”

“मुझे संदेह है. मगर एक बात मेरे मन में रह-रहकर आ रही है, कि इतनी भली महिला को यूँ सताना अच्छा नहीं है. राजघराना अगर अपनी पुत्रवधू के साथ इस प्रकार का व्यवहार करता है, तो अस्ताचल से सभी अच्छाइयों के अस्त होने में देर नहीं लगेगी. तुम्हारा क्या ख़याल है, बेताल?”
“मालूम नहीं...”

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पूछे विक्रम, बोले बेताल - 12

12. राजनीति में झूठ अफ़लातून  उस दिन टहलते-टहलते विक्रम और बेताल पहुँच गए सौभाग्य नगर के विमानपत्तन के निकट. देखा कि चारों ओर बड़...